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________________ (७२) इह मिण्णसंधि गंठी माणचउपाय विज्जुजिम णमा || तो सरिस णिलय कालय कालादी केर अणयक्खा ॥३६६ इहा भिन्नसंधिः ग्रंथिः मानवतुष्पादो विद्युज्जिहो नमः ।। ततः सदृशो निलयः कालच कालादि कोतु रनयाख्या ३६६ अर्थ-अभिन्नसंधि १ ग्रंथि १ मान १ चतुष्पाद १ विद्युजिन्ह १ नभ १ सदृश १ निलय १ काल १ कालकेतु १ अनय ।। ३६६ ॥ सिंहाऊ चिउल काला महकालो रुदणाम महरूद्दा । संताण संभवक्खा सम्वहि दियाय संतियशृणो ॥ ३६७ ॥ सिंहायुर्विपुलः कालो महाकाली रुद्रनामा महास्तः ॥ संतानः संभवाख्यः सर्वार्थीदिशः शांतिर्वस्तुनः ॥३६७॥ अर्थः- सिंहायु १ विपुल १ काल १ महाकाल १ रुद्र १ महारुद्र १ संतान १ संभव १ सर्वार्थी १ दिशा १ शांति १ वस्तुन ? ॥३६७ ॥ णिञ्चल पलभ णिम्मंत जोदिमंता सायंपहो होदि ।। भासुर विरजातत्तोणिमुक्खो वोदसोमोय ॥३६८॥ निश्चल: पलंभो निमंत्रो ज्योतिष्मान स्वयंप्रभो भवति ॥ . भासुरो विरजस्ततो निदुःखो वीतशोकश्च ।। ३६८ ॥ . अर्थ-निश्चल १ प्रलंभ १ निर्मत्र १ ज्योतिप्मान १ स्वयंपम १ भासुर १ विरज १ निदुःख १ वीतशोक १ ॥ ३६८ ।। सीमंकर खेमभयंकर विजयादि चउ विमलतत्थाय ।। ..विजयण्हु वियसो करिकट्टि गिनडिअग्गिजाल जलकेदू ।। सीमंकरः क्षेमभयंकरः विजयादि चत्वारः विमलखस्तश्च ।। विजयिष्णुः विकसः करिकाष्टः एकजटिरग्निज्वालः ज्वलकेता।
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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