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________________ ( ७३ ) अर्थः- सीमंकर १ क्षेमकर १ अभयंकर १ विजय १ वैजयंत १ जयंत १ अपराजित १ विमल १ त्रस्त १ विजयिष्णु १ विकस १ फरिकाष्ठ १ एकनटि १ मग्निज्वाल १ जलकेतु १ ॥ ३६९ ॥ केदू खीरसऽघस्सवणा राहू महगहा य भाषगहो । कुज सणि बुह सुक्क गुरू गहाण णामाणि अडसीदी ॥३७०॥ केतुः क्षीरसः अघः स्त्रवणो राहुः महाग्रहश्च भावग्रहः ।। कुजः शानः बुधः शुक्लःगुरुः ग्रहाणां नामानि अष्टाशीतिः॥ ॥ ३७०॥ . अर्थः-केतु १ क्षीरस १ अघ १ श्रवण १ राहु १ महाग्रह १ भावग्रह १ मंगल १ शनैश्चर १ बुध १ शुक्र १ वृहस्पति १ ऐनै ग्रहनिकै अठयासी नाम हैं ॥ ३७० ॥ भाग जंवृद्धीपवि भरतादिक्षेत्र वा कुलाचल पर्वत तिनकै तारा. निका विभाग दोय गाथानिकरि कई हैं णउदिसयभजिदतारा सगदुगुणसलासमध्मत्था ॥ . . भरहादिविदेहोति य तारावासेयवस्सधरे.॥ ३७१ ॥ नयतिशतभक्तताराःस्वकद्विगुणद्विगुणशलासमभ्यस्ताः ॥ भरतादि विदेहांतं च ताराः वर्षे च वर्षधरे ।। ३७१ ॥ अर्थः- दोय चंद्रमासंबंधी तारे एकलाख तेतीस हजार नवसैपचास कोडाकोडी जवृद्धीपविपं पाईए है । १३३९। ५ । १५ इनकौं एकसौ निवका भाग दीजिए जो प्रमाण होइ ताकों भरतादिक्षेत्र वा कुलाचलनिकी एकतै दणी दणी शलाका विदेह पर्यंत हैं परै धांधी आधी । भरत क्षेत्रकी एक शलाका हिमवत पर्वत की दोय शलाका ऐसे दूणी दुणी किएं विदेहकी चीसठि शलाका तातै परे नीलादि विर्षे आधी जाननी । १।२ । ४ । ८ । १६ । ३२ । ६४ । ३२ ॥ १.६ ।
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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