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________________ ( ५२ ) १७३ ५६ १०५५३ ८०६४ २४८९ विधान करि घटाइए १४४ ६१ ८७ ६४७६४८ ८७८४ तब चौइसे निवासीको सित्यासीसे चौरासीका भाग दीजिये इतना भया ऐसे करि चन्द्रमा चन्द्रमाका चित्र रहित अंतराल एक लाख एक हजार सोलह योजन भर चौइसे निवासी योजनका सित्यासीसे चौरासी भागविषै एक भाग प्रमाण याया । बहुरि तीह एकसौ तेहरिका एकसौ चवालीसवां भागविषै अठतालीसका इकसठवां भाग प्रमाण सूर्यविक समच्छेद विधान करि घटाए छत्तीसे इकतालीसका सित्यासी से चौरासीवां १७३ १०५५३ ६९१२ ३६४१ सो ६१ ८७८४ इतनें करि अधिक एक लाख एक हजार सोलह योजन प्रमाण सूर्यका अंतराल जानना । ऐसे ही अन्य वलयनिविषै अंतराल ल्यावना । बहुरि सर्व वलय संबंधी सूर्य तौ पुष्य नक्षत्र विषै स्थित है । अर चंद्रमा अभिजित नक्षत्रविषै स्थित हैं । भाग आया १४४ ८७८४ ४ भावार्थ:-- सूर्यका विमान अर पुष्य नक्षत्रका विमान नीचे ऊपरि तिहै हैं । अर चंद्रमाका विमान अर अभिजित नक्षत्रका विमान नीचे उपरि हैं ।। ३५१ ॥ आगें असंख्यात द्वीप समुद्रनिविषै प्राप्त जे चंद्रादिक तिनकी संख्या ल्यावनेकौं गछका प्रमाण स्यावता थका ताका कारणभृत असंख्यात द्वीप समुद्रनिकी संख्याको आठ गाथांनिकरि कहें हैं + रज्जूदलिदे मंदिरमज्झादो चरिमसायर तोति || पडदि तदद्वे तस्सदु अमंतरवेदिया परदो ॥ ३५२ ॥ रज्जूदलिते मंदरमध्यतः चरमसागरांत इति ॥ पतति तदर्थे तस्य तु अभ्यन्तरवेदिका परतः ॥ ३५२ ॥ ·
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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