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________________ - ( ५३ ) ___ अर्थ-राजूकों आधा किएं मेरुका मध्यतै लगाय अंतका सागरपर्यंत प्राप्त हो है । भावार्थ-मध्यलोक एक राज़ है तिस एक राजुकों आधा करिए तब मेरुगिरिका मध्यतै लगाय अंतका स्वयंभूरमण समुद्रपर्यंत एक पार्श्वविौं क्षेत्र हो हैं । बहुरि तिसको आधा किए तिसकी अभ्यंतर वेदिकाके परै ॥ ३५२ ॥ कहा सो कहै हैं- . . . . . दसगुणपण्णत्तरिसयजीयणमुवगम्म दिस्सदै जम्हा ॥ ' इगिलक्खहिओ एको पुव्वगसव्वुवहिदीवेहि ॥ ३५३ ।। दशगुणपंचसप्ततिशतयोजनमुपगम्य दृश्यते यस्मात् ॥ एकलक्षाधिकः एकः पूर्वगसौंदधिद्वीपेभ्यः ॥ ३५३ ॥ मर्थ--दश गुणां पिचहतरिसै योजन नाई राजू दीसे है। भावार्थस्वयंभूरमण समुद्रकी अभ्यन्तर वेदीत पिचहत्तर हजार योजन पर नाइ तिस भाष राजुका अर्द्धभाग हो है । काहेते सर्व पूर्व द्वीप वा समुद्र. निके व्यासकों नोडे जो प्रमाण होइ तातें उतर द्वीप वा समुद्रका व्यास एक लाख योजन अधिक हो है । सो इसही कथनको स्पष्ट करै हैं-स्वयंभ्रमण समुद्रका बत्तीस लाखयोजन प्रमाण व्यास कल्पिकरि नंबूद्वीपका आधलाख सहित सर्व द्वीप समुद्रनिका वलय व्यासके अंकनिकों जोडिए ५००००। २ल। ४ ल । ८ ल । १६ ल । ३२ ल । तव कल्पना कर आप राजूका प्रमाण सादा बासठि लाख योजन भए, बहुरि याको माधा किए इकतीस लाख पचीस हजार योजन प्रमाण दूसरी वार आधा किया राजूका प्रमाण होइ तिहविर्षे पूर्वद्वीप समुद्रनिका वलय व्यास ५००००।२ ल । ४ ल । ८।१६ल । जो जोडै तीन लाख पचास हजार योजन प्रमाण भया । सो घटाए तिस स्वयंभूरमण समुद्रका अभ्यंतर वेदिकात २ पिचहत्तर हजार. योजन समुद्रमें गये भाष राजका मध हो है। बहुरि तीह द्वितीयवार आधा किया राजू
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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