SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५१ ) माग तिस तिस वलयविर्षे तिष्ठते चंद्रमातै चंद्रमाका अंतराल सूर्यते सूर्यका अंतराल परिधिवि कहै है सगसगपरिधि परिधिगरविंदुभजिदे दु अंतरं होदि ।। पुस्सलि सव्वसुरछिया हु चदा य अभिजिहि ॥ ३५१ ॥ स्वकस्वकपरिधि परिधिगरवींदुभक्ते तु अंतरं भवति ।। पुष्ये सर्वसूर्याः स्थिता हि चंद्राश्च अभिजिति ॥ ३५१ ।। मर्थ-अपना अपना सूक्ष्म परिधिको परिधिविर्षे प्राप्त जे चंद्र वा सूर्य तिनके प्रमाणका भाग दिए अंतराल हो है। तहां प्रथम जंबुद्वीपत लगाय दो तरफका अभ्यंतर द्वीपसमुद्रनिका वा वलयनिका व्यास मिलाएं बाह्य पुष्कराधका प्रथम वलयका सूची व्यास छियालीस लाख योजन हो है। मानुषोत्तर पर्वतका सची व्यास पैतालीस लाख योजन तामैं दोऊ तरफका वलयका व्यास पचास हजार योजन मिलाएं छियालीस लाख योजन हो है । याका " विष्कभवग्गदहगुण ॥ इत्यादि करणसूत्रकरि सूक्ष्म परिधिविर्षे एक कोडि पैतालीस लाख छियालीस हजार च्यारि योजन प्रमाण होइ ताको परिधिविर्षे प्राप्त सूर्य वा चंद्रमाका प्रमाण एकसौ चवालीस ताका भाग दिएं एक लाख एक हजार सतरह योजन भर गुणतीस योजनका एक सौ चवालीसवां भाग प्रमाण १०१०१७,२९, सर्वत सूर्यका अंतराल परिधिविधै बिम्बसहित जानना वहुरिः विष जो चंद्र वा सूर्यका मण्डल तीह विना अंतराल ल्याइये है जो विवसहित अंतरालविर्षे योनन थे तिनमें सों एक घटाइए १०१०१६ । बहुरि तिस एक योजनको गुणतीसका एक सौ चवालीसवां भाग सहित समच्छेद विधान करि जोडिए तव १ २९ १४४ २९ - एक सौ तेहत्तरिका एकसौ चवाली१ ११ १५४ १४४ । सवां भाग होह तामें चंद्रका विब छानका इकसठियां भाग सो समच्छेद
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy