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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण मुखमखहुतप्रधानपुरुषपशूपहारः विधसविहस्तीकृतकृताम्ताभिमुखः शब्दावतारकारः देवभारतीनिषद्धवृहत्कथः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारः दुर्निनीतनामा'..." -४सूर एण्ड कुर्ग गैजेटियर, प्रथम पृ० ३७३ परिशिष्ट ३ [भगवद्वाग्वादिनीका विशेष परिचय] इसके प्रारंभमें पहले 'लक्ष्मीरात्यन्तिकी पस्य' आदि प्रसिद्ध मंगलाचरणका श्लोक लिखा गया था। परन्तु पीछेसे उसपर हरताल फेर दी गई है और उसकी जगह यह श्लोक और उत्थानिका लिख दी गई है नों नमः पाश्चाय त्वरितमहिमदूतामंत्रितेनादभुतात्मा, विषममपि मघोना पृच्छता शब्दशास्त्रम् । श्रतमदरिपुरासीन वादिवृन्दाग्रणीनां परमपदपटुर्यः स श्रिये वीरदेवः ।। श्रष्टवार्षिकोऽपि तथाविधभक्ताभ्यर्थनाप्रणुन्नः स भगवानिदं प्राह-सिद्धिरनेकान्तात् । १-१-१। इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है। पहले पत्रके ऊपर मार्जिनमें एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि श्रादि व्याकरणों को अप्रामाणिक ठहराया है "प्रमाणवदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणीतसूत्राणि स्यात्कारवादिनदूरत्वात्परिव्राजकादिभाषितवत् अप्रमाणानि च कपोलकल्पनामलिनानि हीनमातृकत्वात्तद्वदेव।" इसके बाद प्रत्येक पादके अन्तमें और श्रादिमें इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र-पाटके भगवत्प्रणीत होने में कोई सन्देह बाकी न रह जाय "इति भगवद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः। ओनमः पाश्र्वाय । स भगवानिदं प्राह।" सर्वत्र 'नमः पार्थाय लिखना भी हेतुपूर्वक है। जब ग्रन्थकर्ता त्वयं महावीर भगवान हैं तब उनके ग्रन्थमें उनसे पहले के तीर्थंकर पार्श्वनाथको ही नमस्कार किया जा सकता है। देखिए, कितनी दूरतक विचार किया गया है ! आगे अध्याय २ पाद २ के 'सह वह चल्यपतेरिः' [६४] सूत्र पर निम्न प्रकार टिप्पणी दी है और सिद्ध किया है कि यदि यह व्याकरण भगवत्कृत न हो तो फिर सिद्धहमके अमुक सूत्रकी उपपत्ति नहीं बैठ सकती "इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । 'सह वह चल्यपतेरिर्धात्रकृसृजनमेः कालिद चवत्-डो सासहिवावाहचाचलिपापति, सस्रिचाक्रिदधिधज्ञिनेमीति सिद्ध हैमसूत्रस्याऽग्यथानुपपत्तः। शर्ववर्मपाणियोस्तु श्रावपिधालोपिन किढेच १, श्रापृगमहनजनः किकिनौ लिट चेति २।" इसके बाद ३-२-२२ सूत्रपर इस प्रकार टिप्पणी दी है "कथं न वचः प्राग्भरतेष्वादि क्षेत्रादिनियापि शिक्षाविशेषाः । कुमारशब्दः प्राच्यानामाश्विनं मासमूचिवान् । मैथुनं तु भिषक्तंत्रे वाचकं मधुसर्पिषः ॥ इत्यायन्यथानुपपत्तेरिति बौटिकतिमिरोपलत्ताम् ।" इसके बाद ३-४-४२ सूत्र[स्तेयाहत्यम् ] पर फिर एक टिप्पणी दी है "इदं शब्दानशानं भगवत्कर्टकमेघ भवति । अहंतस्तोन्त च १, सहारा २, सखिवणिग्दताद्यः ३, स्तेनान्नलुक् चे ४, ति सिद्ध हैमसूत्रान्यथानुपपत्तेः । पाणिन्यादौ त्वाहत्यशब्दं प्रति सूयाभावात् । कथं सरस्वतीकंठाभरणे तदाप्तिः । ऐन्द्रानुसारादर्हतशब्दयश्चेति पश्य । फिर ३-४-४० सूत्र [राः प्रभाचन्द्रस्य पर एक टिप्पणी है। इसमें बौटिको या दिगम्बरियोंका सत्कार किया गया है For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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