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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ जैनेन्द्र-व्याकरणम् कर्नाटक देशके ' कोले' नामक ग्रामके माधबभट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणीसे पूज्यपादका जन्म हुश्रा । ज्योतिषियोंने बालकको त्रिलोकपूज्य बतलाया, इस कारण उसका नाम पूज्यपाद रक्खा गया । माधवभट्टने अपनी स्त्रीके कहनेसे जैनधर्म स्वीकार कर लिया । भट्टलीके सालेका नाम पाणिनि था उसे भी उन्होंने जैनी बननेको कहा, परन्तु प्रतिष्ठाके खयालसे वह जैनी न होकर मुडीगुंड ग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया । पूज्यपादकी कमलिनी नामक छोटी बहिन हुई, वह गुणभट्टको ब्याही गई, और गुणभट्टको उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुआ। ___ पूज्यपादने एक बगीचेमें एक साँपके मुँहमें फंसे हुए मेंडकको देखा। इससे उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये । पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे थे। वह पूरा न हो पाया था कि उन्होंने अपना मरण-काल निकट आया जान कर पूज्यपादसे कहा कि इसे तुम पूरा कर दो । उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया। पाणिनि दुर्व्यानवश मरकर सर्प हुए। एक बार उसने पूज्यवादको देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा, विश्वास रक्खो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा। इसके बाद उन्होंने पाणिनि व्याकरणको पूरा कर दिया। इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, अर्हत्प्रतिष्ठालक्षण और वैद्यक ज्योतिष आदिके कई ग्रन्थ रच चुके थे। गणमह के मर जानेसे नागार्जुन अतिशय दरिद्री हो गया । पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्ध करनेकी विधि भी बतला दी। उसके प्रभावसे पद्मावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतला दी। इस सिद्ध-रससे नागार्जुन सोना बनाने लगा। उसके गर्वका परिहार करनेके लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पतिसे कई घड़े सिद्ध-रस बना दिया। नागार्जुन जब पर्वतोंको सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरणेन्द्रपद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनानेको कहा । तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्वनाथकी प्रतिमा स्थापित की। पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्रको जाया करते थे। उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियोंसे झगड़ा करके द्राविड़ संघकी स्थापना की। नागार्जुन अनेक मन्त्र तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत ही प्रसिद्ध हो गया। एक बार दो सुन्दरी स्त्रियाँ आई जो गाने नाचनेमें कुशल थीं। नागार्जुन उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगी और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनी। पूज्यपाद मुनि बहुत समयतक योगाभ्यास करते रहे । फिर एक देव-विमानमें बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थोकी यात्रा की। मार्गमैं एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक बनाकर ज्योकी त्यों कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने ग्राममै आकर समाधिपूर्वक मरण किया । इस चरितपर कोई टीका-टिप्पणी करना व्यर्थ है। इस तरहके न जाने कितने मनगढन्त और ऊलजलूल किस्से हमारे यहाँ इतिहासके नामसे चल रहे हैं। परिशिष्ट २ हेब्रुका दानपत्र श्रीमन्माधवमहाधिराजः, तस्य पुत्र: अविच्छिनाश्वमेघावभृथाभिषिक्तः श्रीमत्कदम्यकुलगगनगभस्तिमालिनः श्रीमत्कृष्णवर्ममहाराजस्य प्रियभागिनेयः जननीदेवताङ्कपर्यङ्क एवाधिगतराज्यः विद्वत्कविकाञ्चननिकषोपलभूतः असम्भावनमितसमस्तसामन्तमण्डलः अविनीतनामा श्रीमत्कोमणिमहाराजः तस्य पुत्रः पुनाडराजप्रियपुत्रिकापुत्रः विज़भमाणशक्तित्रयोपनमितसमस्तसामन्तमण्डलः अन्दालत्त रुपौरुलरेपेर्नगराधनेकसमर For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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