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________________ ( ३४ ) गुणसत्त्वान्तरज्ञानान्निवृत्त-प्रकृति- क्रिया । मुक्ता. सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः ॥ १ ॥ तदनेन निरस्त यच्चोच्यते - सशरीरतायामपि सिद्धत्वप्रतिपादनाय, यदुत - अणिमाष्टविध प्राप्यश्वर्य कृतिन सदा । मोदन्ते निर्वृतात्मानस्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥ इति तदपाकरणायाह — 'अशरीरा' प्रविद्यमान - पञ्चप्रकारशरीराः, तथा 'जीवघण' त्ति योगनिरोधकाले रन्ध्रपूरणेन त्रिभागोनाऽवगाहना सन्ता जीवधना इति, 'दसणनाणोवउत्त' त्ति ज्ञान साकार, दर्शनम् - अनाकार तयो. क्रमेणोपयुक्ता ये ते तथा 'निट्ठियट्ठे' त्ति निष्ठितार्था - समाप्तसमस्तप्रयोजना. 'निरेयण' त्ति निरेजना - निश्चला : 'नीरय' त्ति नीरजसो - बध्यमानकर्मरहिताः नीरया वा - निर्गतोत्सुक्या, 'निम्मल' त्ति निर्मला पूर्वबद्धकर्मविनिर्मुक्ताः द्रव्यमलवर्जिता वा 'वितिमिर ' त्ति विगताज्ञाना' 'विसुद्ध' त्ति कर्मविशुद्धिप्रकर्षमुपगता 'सासयमणागयद्ध काल चिट्ठति' शाश्वतीम् - अविनश्वरी सिद्धत्वस्याविनाशाद्, अनागताद्धा भविष्यत्काल तिष्ठन्तीति 'जम्मुप्पत्ती' त्ति जन्मना -कर्मकृतप्रसूत्या उत्पत्तिर्या सा तथा, जन्मग्रहणेन परिणामान्वररूपात्तदुत्पत्तिभवतीत्याह, प्रतिक्षणमुत्पादव्यय ध्रौव्य - युक्तत्वात्सद्भावस्येति । हिन्दी- भावार्थ सिद्ध जीव मुक्ति मे विराजमान है, वे मुक्ति मे जाने की अपेक्षा से सादि है, मुक्ति से कभी वापिस नही आते है, इसलिए अनन्त है औदारिक, वैक्रिय आदि पञ्चविध शरीरो से रहित हैं, पोलार से रहित आत्मप्रदेश वाले है, दर्शन और ज्ञान रूप उपयोग के धारक है, कृतकृत्य है कम्पन से रहित है, कर्मरूप रज और मल से रहित है, अज्ञान रूप अन्धकार से रहित है,
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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