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________________ जैनशिलालेय-संग्रह [08 २२६ तिरुनिकोण्डै ( महाम) ११ीं सदी पूधि, नमिल [इस लेसका कुछ भाग दीवाली दवा है। उनके प्रारम्भमे राजेन्द्रचोल प्रथमकी ऐतिहासिक प्रशस्ति है। तिरुमणगि निवानी कलिमानन् विजयालयमल्लन्-द्वारा देवमन्दिरमे दीप प्रज्वलिन नेके लिए ९६ भेनें दान दी जानेका इनमे उल्लेख है। यह लेप चन्द्रनारमन्दिरके बरामदेके वाजूमे सुदा है। [रि० मा० ए० १९३९-४० ऋ० ३०० पृ० ५ ] १३० हलि (जि. वेलगांव,म्हगूर) शक ९६६ तथा १०६७ = मन् १०४४ तथा ११४", कन्नर १-२ श्रीमत्परमगमारस्यावादामाघरोउन । नीयात त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशास्न ॥ (1) ३ स्वस्ति समस्तभुवनाश्रय श्रीपायलम महाराजाभिरान पर मेश्वर परममहार४ क सस्याश्रयकुलतिलक चालुक्यामरण श्रीमहादवमलवर विजयराज्य५ मुत्तरोत्तराभिवृधिप्रवर्धमानमाचरातारं मलुत्तमिर ॥ तपाठ पभोपजीवि ॥ मले६ दं पगेवरं निर्मूलिसि जसम निमिचि दिमित्तिवरं कालढिय घोलगदि वले पालिसिट तोचना७ रुम भुजबलदि । (२) आतन पुत्र धिनयोपेत पायिम्म-नृपतिगोपुर सति
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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