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________________ जैन-शिलालेख संग्रह दूसरा पत्र, दूसरी ओर । श्रमणसद्धान्ययवस्तुन धर्मानन्धाचार्याधिष्ठितप्रामाण्यस्य चैत्यालयस्य पूजासस्कारनिमित्तम् साधुजनोपयोगार्थश्च सेन्द्रकाणां कुलललामभूतस्य भानुशक्तिराजस्य विज्ञापनया मरदे प्रामं दत्तवान् [1] य एतल्लोभाये कदाचिदपहरेत् स पञ्चमहापातकसयुक्तो भवति यश्चाभिरक्षति स तत्पुण्यफलम् तीसरा पत्र। अवाप्नोतीति [1] उक्तञ्च ॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् पष्टिवर्पसहस्राणि नरके पच्यते तु स || बहुभिर्वसुधा मुक्ता राजमिस्सगरादि [भिः] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।। ये सेतूनभिरक्षन्ति मैग्नान् सस्थापयन्ति च । द्विगुण पूर्वकर्तृभ्य. तत्फल समुदाहृतम् [I] [इस लेखमें अपने राज्यके पांचवें वर्षमे सेन्द्रकके कुलके भानुशक्ति राजाकी प्रार्थनापर हरिवम्माने 'मरदे' नामका गाँव दान दिया था, इस बातका उल्लेख है । यह हरिवर्मा रविवर्माका प्रियपुत्र है । यह दान राजधानी पलाशिकाम किया गया। इस दानका निमित्त वह चैत्यालय था जो कि 'महरिष्टि' नामके श्रमणसङ्घकी सम्पत्ति थी और जिमपर आचार्य धर्मनन्दिकी आज्ञा चलती थी; उस चैत्यालयके पूजा इत्यादिके प्रबंधके लिये तथा साधुजनोंके उपयोगके लिये ही यह दान किया गया । [ई० ए०, जिल्ट ६, पृ० ३१-३२.]
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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