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________________ हल्सीके लेख वर्धता वर्धमानार्हच्छासन सयमासनम् येनाद्यापि जगज्जीवपापपुजप्रभंजनम् [11] नमोर्हते वर्धमानाय [1] [यह दानपन्न कदम्ब राजवंशके महाराजा हरिवर्माका है। उन्होंने अपने राज्यके चौथे वर्षमें शिवरथ नामके पितृव्यके उपदेशसे, सिंहसेनापतिके पुत्र मृगेशद्वारा निर्मापित जैनमन्दिरकी अष्टाह्निका-पूजाके लिये और सर्वसघके भोजनके लिए 'वसुन्तवाटक' नामक गाँव कूर्चकोंके वारिपेणाचार्यसंघके हाथमें चन्द्रक्षान्तको प्रमुख बनाकर प्रदान किया। यह और ९९ वां दानपत्र दोनों, ताम्रपत्रोंपर हैं । नम्बर ९९ वें के दान-पत्र में यापनीय, निम्रन्थ और कूर्चक इन तीन सम्प्रदायोंके नाम हैं और इसमें सिर्फ कूर्चक सम्प्रदायका । इससे मालूम होता है कि इस सम्प्रदायमें 'बारिपेणाचार्यसघ' नामका एक संघ था, जिसके प्रधान चन्द्रक्षान्त (मुनि) थे।] [इ० ए०, जिल्द ६, पृ० ३०-३१] हल्सी-संस्कृत। प्रथमपत्र। सिद्धम् ॥ स्वस्ति ॥ स्वामिमहासेनमातृगणानुव्यानाभिषिक्तानाम् मानव्यसगोत्राणाम् ] हारितीपुत्राणाम् प्रतिकृतस्त्राध्यायचर्चापाराणाम् कदम्बानाम् महाराजश्रीरविवर्मणः स्वभुजबलपराक्रमावाप्ता(१) निरवद्यविपुलराज्यश्रियः विद्वन्मतिसुवर्णनिकपभूतस्य कामाद्यरिगण दूसरा पत्र, पहली ओर । .. त्यागाभिव्यञ्जितेन्द्रियजयस्य न्यायोपार्जितार्थ [स] हितसाधुज न]स्य क्षितितलप्रततविमलयशसः प्रियतनय पूर्वसुचरितोपचितविपुलपुण्यसम्पादितगरीवुद्धिसत्व. सर्वप्रजाहृदयकुमुदचन्द्रमा. महाराजश्रीहरिवमा स्वराज्यसवत्सरे पञ्चमे पलाशिकाधिष्ठाने अहरिष्टिसमाह्वयः शि०६
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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