SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन - शिलालेख संग्रह [१५] खदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् [१६] पष्ठिवर्षसहस्राणि निरये स विपच्यते ॥ [ इस लेख मे रविवर्मा के द्वारा जिनेन्द्रदेव के लिये दिये गये एक भूमि-दानका उल्लेख है । दान की गई भूमि नापमें ४ निवर्तन थी, दामकीर्ति, जो कि धर्ममूर्ति थे, की माता के चरणोका प्रसाद पाकरके ही यह राजा दानमे प्रवृत्त हुआ । दामकीर्ति के छोटे भाईका नाम श्रीकीर्त्ति था। रविवर्मा पलाशिका में रहते थे । इन्होंने श्रीविष्णुवर्मा ( संभवत. 'विष्णुगोप' या 'विष्णुगोपवर्मा' नामका पल्लव राजा) और दूसरे अन्य राजाओका वध किया था, समस्त पृथ्वीको जीता था और कालीश्वरके चण्डदण्डका उत्सादन ( निर्मूलन ) किया था । ] [ इ० ए०, जिल्द ६, पृ० २९-३०, न० २४] I १०२ हल्सी - संस्कृत । -[?] प्रथम पत्र । ७८ स्वस्ति ॥ जयति भगवाञ्जनेन्द्र गुणरुन्द्र प्रथितपरमकारुणिक त्रैलोक्याश्वासकरी दयापताकोच्छ्रिता यस्य ॥ श्रीमत्काकुस्थराजप्रियहिततनयश्शान्तिवर्म्मावनग तस्यैव ज्येष्ठः प्रथितपृथुयगा श्रीमृगेशो नरेशः || (I) दूसरा पत्र, पहली ओर । तत्पुत्रो दीप्ततेजा रविनृपतिरभूत्सवधैय्र्यार्जितश्रीः ताता भानुवर्मा खपरहितकरो भाति भूप ( .) कनीयान् ॥ तेनेय वसुधा दत्ता जिनेभ्यो भूतिमिच्छता । पौर्णमासी प्यनुच्छिद्य स्त्रपनार्थ हि सर्व्वदा || पलाशिकायाम् कर्द्दमपट्यां राजमानेन
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy