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________________ ४२ जैन- शिलालेख संग्रह पकी पत्नी दत्ताने महाभोगता ( महासुख ) के लिये यह दानधर्म किया । भगवान् ऋषभदेव प्रसन्न होवें । [El, 1, n° XLIII, n° 8] ५७ वाचकस्य आतपिको ग्रहबलस्य अनुवाद - वाचक आर्य ककसम्त ( कर्कशघर्षित ) के शिष्य आतपिक ग्रहलके आदेश से | मथुरा - प्राकृत । [हु० सवत् ६२ ] अर्य-ककसघस्तस्य शिष्या निर्वर्तन इस शिलालेखसे मालूम पड़ता है कि किसी मुनिके आदेशसे जैन श्राविका वैहिकाने एक प्रतिमाका दान किया । [1A, XXXIII, p. 105 106, n° 19] ५८ मथुरा - प्राकृत | [हु० वर्ष ६२ ] १. सिद्ध । स ६०२ व २ दि ५ एतस्य पुवय वाचकस्य आयकर्कुहस्थ [ स ] २ वारणगणियस शिपो ग्रहवलो आतपिको तस निवर्तना । अनुवाद - सिद्धि हो । वर्ष ६२, वर्षाऋतुका २ रा महीना, दिन ५, इस दिन, वारणगणके चाचक आय-कर्कुहस्य ( आर्य कर्कशवर्षित) के शिष्य आपिक ग्रहबल थे । उनकी प्रेरणा से at [El, II, n° XIV, ५९ मथुरा - प्राकृत ! n° 19] [ ] वर्ष ७९ अ. १. स ७०९ - ४ दि २० एतस्या पुर्व्वाय कोड़िये गणे वराया शाखाया
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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