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________________ जैन-शिलालेख संग्रह २९१ " ऊद्रि-कन्नड [विक्रम वर्ष कीलक ११२९ ई० (लु. राइस)।] [अनिमें चौथे पापाणपर ] स्वस्ति श्रीमद्-विक्रम वर्पद कीलक संवत्सरद माग (घ)-शुद्ध १३ श्रीमन्महामण्डलेश्वरं एक लरस-देवरुद्धरेयोळ सुख-सकया-विनोददि राज्यं गेय्युत्तिरे ॥ परम-जिनेश्वर तनगीश्वरनुलसच्चरित्र"। गुरु हरिण[न्दि]देव-मुनिपोत्तमनग्गढ दण्डनायकम् । वर-गुणि-बोप्पणं जनकनुन्नत-शीलद नागियक मातरेयेनलेम् कृतार्थनो धरित्रिगे सिंगण-दण्डनायकम् ।। * गुणद कणि जैन-चूडा'मणिं वैरि-बलक्के समर-मुखढोळ् सुभटा, अणि जिन-पदङ्गळ सिङ् गण-दण्डाधिपति नेनेदुः सद्-गति-वेत्तम् ।। स्वन्ति । (उक्त मितिको), जिस समय महा-मण्डलेश्वर एक्लरस-देव, शान्ति और बुद्धिमत्तासे राज्य करते हुए उद्धरेमें विराजमान थे उस समय सिंगण दण्डनायक था। वह बडा भाग्यशाली था, क्योकि उसके परम-जिनेश्वर अधीश्वर (इष्ट देव) थे, हरिनन्दि-देव-मुनि उसके गुरु, महान् दण्डनायक बोप्पण उसके पिता, और नागियच उसकी माता थी। यह दण्डनायक अपने समयका जैन-चूडामणि था, समरमे सामना करनेवाले सुभटोंमे अग्रणी था,-जिनपदोंका ध्यान करते हुए उसको सद्गति मिली थी।] . [EC, VIII, Sorab ti, n° 149]
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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