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________________ सावनूरका लेख ग¥यु अदर वळसि वेदलेयुम्.........."मं प्रतिपा (शेष पदे जानेके योग्य नहीं है)। [EO, XI, Davangere tl , n° 90] [जिनशासनकी प्रशंसा । स्वस्ति । जब, (उन्हीं चालुक्य उपाधियों सहित), त्रिभुवनमल्ल-पेमाडि-देवका विजयी राज्य प्रवर्द्धमान था तब तत्पादपद्मोपजीवी राजा पाण्ड्य था । पृथ्वीपर उसका सामना करनेवाला कोई भी न था । उसने शिव (त्रिपुर), शूद्रक, गरुड, अर्जुन (फाल्गुन), राम, सहस्रार्जुन, कृष्ण, भीम, इन सबको जीता था। उसका दण्डाधिप सूर्य यादव-वंशका सूर्य और राजिग-चोळके प्रयतोंका विफल करनेवाला था। उसकी पत्नी कालियके थी। जो धन चोरों, सगेसम्बन्धियो, लोभियो, राजाओं, या अग्निसे नष्ट किया जा सकता है, उसकी प्राप्तिमें क्या स्थिरता है, इसलिए उसने उसकी स्थिरताके लिये सेम्बनूरमे जिनपतिका एक उत्तम मन्दिर बनवाया। उसकी प्रशंसा । कालियकेके पिता माप्तवर्मा, माँ जकम्वे,....""कलि-देव थे। सूर्य-चमूपका छोटा भाई भादित्य-दण्डाधिनाथ था। उसकी प्रशंसा । द्रविण-संघके नन्दि-संघमे अरुङ्गलान्यय चमकता है। उसमें समन्तभद्र, वादिराज, उनके शिष्य भजितेश (मजितसेन-भट्टारक) उनके ज्येष्ठ शिष्य मल्लिपेण-मलधारी, उनके शिष्य श्रीपाल विद्य-देव हुए। प्रत्येकका एकएक श्लोक्में गुणवर्णन। (उक्त मितिको), सेम्बनूरके मन्दिर-पुरोहित शान्तीशयन-पण्डितके हाथोमे, ज्येष्ठ दण्डनायकिति कालियकन्वेने जलधारापूर्वक पार्श्वदेव और उनकी पूजा तथा पुजारीकी आजीविकाके लिये (उक्त) भूमिदान किया । कल्याणकामना और शाप] २८९-९ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कंझड [शक ३०५०=११२९ ई० (कीलहॉर्न)] (जै०शि० सं०, प्र० भा०
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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