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________________ सण्डका लेख ३५९ [ देसिग गण और पुस्तक- गच्छके श्रीधरदेव थे, जिनके शिष्य एलाचार्य थे, उनके शिष्य दामनन्दिभट्टारक थे, उनके साथी चन्द्रकीर्त्ति भट्टारक थे, उनके शिष्य दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव थे, उनके शिष्य जयकीर्त्ति देव थे जिनका दूसरा नाम चान्द्रायणी देव भी था, इन सबका समुदाय इन बसदियोका मालिक है । जो इस समुदायके अधीन नहीं है उन्हें यह समुदाय भगा देगा, बाहर भेज देगा । चङ्गाळवने, १८ बिलस्तके दण्डेके नापसे, विक्रमादित्यकी छोडी हुई और वोल्लडिकी उत्तरीय नहर या मोरीसे सींची गई तथा परमेश्वरकी दी हुई और रामस्वामीकी छोडी हुई १५०० 'कम्म' (एक नापविशेष ) जमीन दानमे दी, उसी नापसे वेजिरिगट्टकी २५० 'कम्म' जमीन बगीचेके लिये, और '५०० 'कम्म' मदुरनहल्लिमे दिये । ] [ EC, IV, Yedatore tl, २४२ अगडि - कन्नड़ - -ध्वस्त । n° 28] [ चिना काल-निर्देशका, पर संभवत लगभग ११०० (१) ई० का ] [ अगडि ( गोणीबीड परगना ) मे, बसदिके पासके पाषाणपर ] भद्रमस्तु जिनशासनस्य श्री ण गङ्गदासि सेट्टि सोमदि .... ......... धिय मुडिहिद प... क्षके मग चटयं निलिसिद सासन • [ जिन-शासनका कल्याण हो । गङ्गदास सेट्टिके मर जानेपर, उसके पुत्र वने यह स्मारक उसके लिये खड़ा किया । ] [ EC, VI, Mūdgere tl, n° 10] २४३ सण्ड संस्कृत तथा कन्नड़ - भग्न [ विना काल-निर्देशका, पर संभवत. लगभग ११०० ई० का ] [ सण्डमें, तालाबके प्रवेश-द्वारपरके एक पाषाणपर ]
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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