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________________ २२ जैन- शिलालेख संग्रह २३ मथुरा - प्राकृत | [बिना कालनिर्देशका ] ये अ. १ सिद्धम् ॥ २ उ [च्चे ] नागरितो व. १. जेप्टहस्ति [स्य] [गिशो ] अर्य्यं [गा ] ढक [7] [] स्य शिशिनि [ अ ] कोट्टियातो गणातो ब्रह्मदासिकात[]] कुलातो गाखानो - रिनातो स[भ]][गातो] अ [] --- शि[ष्यो] अर्य्यमहलो अजेष्ट [ हस्तिस ] २. शामये निर्वतना । उ [स] जयदासस्य कुटुविनिये दान प्रतिमा वर्मये धीतु [ गुल्हा ] ". अनुवाद- - सफलता प्राप्त हो । अर्थ्य (आर्य ) ज्येष्ठहस्तिके शिष्य अर्थ महल थे । वे कोट्टिय गण, ब्रह्मगसिक कुल, उच्च नागरी शाखा और ' रिन संभोग थे । ज्येष्टहस्तिके एक और शिष्य आर्य गाढक थे । उनकी शिष्या शामाके कहने से गुल्हाने, जो कि वर्माकी पुत्री और जयदासकी पत्नी थी, एक ऋषभदेवकी प्रतिमा समर्पित की। [El, 1, XLIII, n° 14] २४ मथुरा - प्राकृत | [ कनिष्क सं० ७ ] १ [ सिद्धम् ॥ ] महाराजस्य राजातिरास्य देवपुत्रस्य पाहिकणिष्कस्य स० ७ हे १ दि १० ५ एनस्य पूर्वाया अयदेहिक्रियातो २. गणातो अनागभुतिकिया तो कुलातो गणिस्य अर्य्यबुद्धशिरिस्य शिष्यो वाचको अस [न्धि] कस्य भगिनि अजया अगोष्ठ
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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