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________________ मथुराके लेख २२ मथुरा --- प्राकृत ! [ बिना कालनिर्देशका ] अ. १. सिद्ध को [हि] यतो गणतो उचेन २. गरितो शखतो ब्रम्हा (ह्मा) दासिअतो ३. कुलनो शिरिग्रिहतो संभोकतो ४. अय्य जेष्टहस्तिस्य शिष्यो अ [र्य्यमि] [हि ] लो ] व. १. तस्य शिष्य []] अर्य्यक्षेर २. [को] बाचको तस्य निर्व ३. न वर [ण] हस्ति [ स्य ] स. १. [च] देवियच धित जय२. देवस्य वधु मोषिनिये २. वधु कुठस्य कथस्य द. १. धम्रप [ति ] ह स्थिरए २. न शोभद्रिक ३ सर्वसत्वन हितसुखये २१ [ El, II, n' XIV, n° 37 ] अनुवाद - कोट्टिय गण, उचेनगरी (उच्चनागरी) शाखा, (और) ब्रह्मदासिअ (ब्रह्मदासिक) कुल, शिरिग्रह संभोग के अय्य जेष्टहस्ति (ज्येष्छहस्तिन् ) के शिष्य अर्थ्य मिहिल ( आर्य मिहिर ) थे; उनके शिष्य वाचक -अर्थ्य are ( आर्य क्षैरक ? ) थे; उनके कहनेसे वरणहस्ती और देवी, दोनोकी पुत्री, जयदेवकी बहू तथा मोषिनीकी बहू, कुठ कथकी धर्मपत्नी स्थिरा दान, सर्व जीवोंके कल्याण और सुखके लिये, सर्वतोभद्रिका प्रतिमा दी गई ।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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