SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ जैन-शिलालेख संग्रह बरेदोम् नागवर्मा ढेवारके कोट केय् ग अवुतवूर्ग काळान्तरदोळ् मोह-सन्दोम् पञ्च-महा-पातकनक्कु यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् । ( वाजूमें) ई-कल्ल सन्दिगर कुळि "मुद्दन् निरिसिदोम्"" वेलेयम्मन मगम् [जब प्रजापति सवत्सर शक वर्ष ८३४ में, महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक कन्नर-देवका राज्य प्रवर्धमान था, जिस समय कालिक देवयसर-अन्वयके महासामन्त कलिविट्टरस बनवासि १२००० का शासन कर रहे थे,-नागरखण्ड सत्तरके 'नाळ-गावुण्ड' के पदको धारण करनेवाले सत्तरस नागार्जुनके मर जानेपर राजाने जक्कियन्चेको आवुतवूर और नागरखण्ड-सत्तर दे दिया। जकियध्वेने भी जकलिमें मन्दिरके लिये ४ मत्तल चावलकी भूमि दी । एक वीमारीके समय उसने शक, सं० ८४० मे, बहुधान्य वर्षमे, पूर्ण श्रद्धासे बसदिसे आकर समाधिमरण ले लिया।] गिरनार-संस्कृत-भन्न। (काल लुप्त) [यह लेख नेमिनाथ मन्दिरके दक्षिण तरफके प्रवेशद्वारके पासके प्राङ्गणके पश्चिम दिशाकी तरफके एक छोटे मन्दिरकी दीवालपर है । पाषाण ट्टा हुआ है। ॥ स्वस्ति श्रीधृति ॥ नमः श्रीनेमिनाथाय ज ॥ वर्षे फाल्गुन शुदि ५ गुरौ श्री ॥ तिलकमहाराज श्रीमहीपाल ॥ वयरसिंहभार्या फाउसुतसा ।। सुतसा० साईआ सा० मेलामेला
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy