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________________ ११८ जैन सिद्धांत पाठमाळा. Rom शब्दा विविधा भवन्ति लोके, दिव्या मानुप्यकास्तरश्चाः। मीमो भयभैरवा उदाराः, यः श्रुत्वा न विभेति स भिक्षुः॥१४॥ वाद विविहं समिच लोए, सहिए खेयाणुगप य कोवियप्पा। पन्ने अभिभूय सवदंसी, उवसन्ते अविहेडए स भिक्खू ॥१५॥ वाद विविध समेत्य लोके, सहितः खेदानुगतश्चकोविदात्मा। प्राज्ञोऽभिभूय सर्वदर्गी, उपशान्तोऽविहेटकः स भिक्षुः ॥१५॥ असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइन्दिए सब्बयो विप्पमुक्के । अणुकसाई लहुअप्पभक्ती, चिच्चा गिहं एगर स भिक्खु॥१६॥ अशिल्पजीव्यगृहोऽमित्रः, जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रमुक्तः , अणुकषायी लध्वल्पभक्षी, त्यक्त्वा गृहमेकचरः स भिक्षुः॥१६॥ त्ति बेमि ॥ इति समिक्खुयं समतं ॥ इतिबवीमि-इतिसभिक्षुकं समाप्तं ॥अह बम्भचेरसमाहिठाणाणाम सोलसमं अज्झयणं॥ अथ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं नाम षोडशमध्ययनं सुयं मे पाउस-तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु थेरेहि भगवन्तेहिं दस वम्भरतमाहिठाणा पनन्ता, जे भिकरबू सोचा निसम्म संजमबहुले संवरवहुले समाहिवहुले गुत्ते गुतिदिए गुत्तवम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा । कयर खलु ते रहि भगवन्तेहिं दस वम्भचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरवहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तवम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा। इमे खलु ते थेरेहिं भगवन्तेहिं दस दम्भचेरठाणा पन्नता, जे भिक्खू
SR No.010006
Book TitleJain Shiddhanta Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherAjaramar Jain Vidyashala
Publication Year1989
Total Pages427
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size13 MB
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