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________________ wor .......... अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी पुत्र थे। इनके बनाये हुए देवागम (आप्तमीमांसा), सा प्रन्थ है और सुन्दर उपदेशपूर्ण है। पं० आशायुक्त्यनुशासन, वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, जिन-शतक धरने इसपर एक संस्कृत निबन्ध लिखा है। और रत्नकरण्ड श्रावकाचार. ये ग्रन्थ छप चुके हैं। इनके सिवाय कहा जाता है कि इनके बनाये हरिवंशपुराणमें इनके एक 'जीवसिद्धि' नामक हुए और भी कई ग्रन्थ हैं। सर्वार्थसिद्धिकी भूमिकामें ग्रन्धका उल्लेख मिलता है। पटखण्डसूत्रोंके पहले श्रीयुत पं० कलापानिटधेने लिखा है कि चिकित्लापांच खण्डोंपर भी इनकी बनाई हुई ४८ हजार शास्त्रपर भी पूज्यपादस्वामीके दो ग्रन्थ उपलब्ध होते श्लोक प्रमाण संस्कृत टीकाका उल्लेख मिला है। ह,जिनमेसे एक चिकित्साका और दूसरे में औषधों आवश्यकसूत्रकी मलयगिरिकत टीकाम आय- तथा धान्योका गुणनिरूपण है । परन्तु पण्डितश्री स्तुितिकारोऽप्याह' कहकर इनके स्वयंभू स्तोत्रका महाशयने न तो उक्त ग्रन्थोका नाम ही लिखा है एक पद्य उद्धृत किया है। इससे मालम होता है कि और न यही लिखनेकी कृपा की है कि वे कहाँ उप. ये सिद्धसेनसे भी पहले के ग्रन्थकर्ता क्यों कि लब्ध हैं । शुभचन्द्राचार्यकृत ज्ञानार्णवके नीचे सिद्धसेन भी स्तुतिकारके नामसे प्रसिद्ध है। लिखे श्लोकके 'काय' शब्दसे भी यह यात अभी तक इन दोनों ही आयायोका समय निर्णीत ध्वनित होती है कि पूज्यपादस्वामीका कोई चि. नहीं हुआ है। कित्सा ग्रन्थ है: अपाकुर्वन्ति यद्वाचः क.यवाञ्चित्तसंभवम् । पूज्यपादके अन्य ग्रन्थ । कलकमङ्गिनां सोय देवनन्दी नमस्यते । जैनेन्द्र के सिवाय पूज्यपादस्वामीके बनाये हुए पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्टिट्यूटमें 'पूज्यअबतक केवल तीन ही ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं और पादकृत वैयक' नामका एक ग्रन्थ है'। यह आधानि'ये तीनों ही छप चुके हैं: क कनडीमें लिखा हुआ कनडी भाषाका ग्रन्थ है। १-सर्वार्थसिद्धि । दिगम्बर सम्प्रदायम आचार्य और न यही मालूम होता है कि यह उनका बना. पर इसमें न तो कहीं पूज्यपादका उल्लेख है उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्रकी यह सयसे पहली या हुआ होगा। टीका है। अन्य सब टीकायें इसके बादकी हैं विजयनगरके हरिहरराजाके समयमें एक मंगऔर वे सब इसको आगे रख कर लिखी राज नामका कनडी कवि हुआ है । वि० सं० गई है। १४१६ के लगभग उसका आस्तित्व काल है। २-समाधितंत्र । इसमें लगभग १०० श्लोक हैं, स्थावर विर्षोंकी प्रक्रिया और चिकित्सापर उसइस लिए इसे समाधिशतक भी कहते हैं । अध्या- ने खगेन्द्रमणिदर्पण नामका एक ग्रन्थ लिखा है। त्मका बहुत ही गंभीर और तात्त्विक ग्रन्थ है । इस इसमें वह आपको पूज्यपादका शिष्य बतलाता है पर कई संस्कृत टीकाय लिखी गई हैं। और यह भी लिखता है कि यह ग्रन्थ पूज्यपादके . .३-इष्टोपदेश। यह केवल ५ श्लोकप्रमाण छोटा. वैद्यक ग्रन्थसे संगृहीत है । इससे मालूम होता है कि पूज्यपाद नामके एक विद्वान् विक्रमकी तेरहवीं १ लेखक महाशयके इस कथन में कि.समन्तभद्र सिद्धसेनसे शताब्दिमे भी हो गये है और लोग भ्रमवश उन्हींभी पहले हुए है, कोई प्रमाण नहीं है। हमारे विचारसे के वैद्यक ग्रन्थको जैनेन्द्र के कर्ताका ही बनाया हुआ सिद्धसेन समन्तभद्र के पुरोगामी है। इस विपयके विशेष समझकर उल्लेख कर दिया करते हैं। विचार जानने के लिये, इस पत्रके प्रथम अंक्रमें प्रकाशित वृत्तविलास कविकी कनडी धर्मपरीक्षाका जो 'सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' शीर्षक हमा- पय पहले उद्धृत किया जा चुका हैं उसमें दो प्र. रा लेख देखना चाहिए। न्योंका और भी उल्लेख है, एक पाणिनिव्याक. संपादक-जै. सा.सं. : १ नं. १०६६, सन् १८८७.९१ की रिपोर्ट ।
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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