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________________ जैन साहित्य संशोध.. . . [भाग १ दन्त आचार्यका और शेष भूतबालिका बनाया हुआ विदुषणांपु संसन्स यस्य नामापि कीर्तितस् । है।वीरनिर्वाणसंवत् ६८३ के बाद पूर्वोक्त सब आचार्य निखर्वयति तद्ग यशोभद्रः स पातु नः ॥ ४६ .. क्रमसे हुए, या अक्रमसे; और उनके बीच में कितना इनके विपयमें और कोई उल्लेख नहीं मिला और कितना समय लगा, यह जाननेका कोई भी साधन न यही मालूम हुआ कि इनके बनाये हुए कौन नहीं है । यदि हम इनके वीचका समय २५० वर्ष कौन ग्रन्थ हैं। आदिपुराणके उक्त लोकसे तो वे मान लें तो भूतलिका समय वीरनिर्वाण संवत् ९३३ तार्किक ही जात परते हैं। (शक संवत् ३२८ वि० सं० ४६३) के लगभग प्रभाचन्द्र । आदिपुराणमें न्याय कुमुदचन्द्रो. निश्चित होता है । और इस हिसावले वे पूज्यपाद दयके कर्ता जिन प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, स्वामसेि कुछ ही पहले हुए हैं, ऐला अनुमान उनसे ये पृथा और पहलेके मालूम होते हैं। होता है। क्यों कि चन्द्रोदयके कर्ता अकलङ्गभटके समयमै २ श्रीदत्त । विक्रमकी ९ वीं शताब्दिके सुप्रसिद्ध हुए हैं, इस लिए उनका जिक जैनेन्द्र में नहीं हो लेखक विद्यानन्दने अपने तत्त्वार्थ-लोकवार्तिकमै सफता । मालूम नहीं, ये प्रभाचन्द्र किस ग्रन्थके श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक अन्धका उल्लेख कता है और कय हुए हैं। किया है: ५ सिद्धसेन । ये सिद्धसेन दिवाकरके नामले द्विप्रकार जगौ जल्पं तत्त्व-प्रातिभगोचरम् । प्रसिद्ध है । ये बड़े भारी तार्किक हुए हैं। स्वर्गीय त्रिषष्टवादिना जता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥ डा० सतीशचन्द्र विद्याभषणका खयाल था कि विइससे मालूम होता है कि ये ६३ वादियाँके क्रमकी सभाके 'क्षपणफ ' नामक रत्न यही थे। जीतनेवाले बड़े भारी तार्किक थे । आदिपुराणक आदिपुराणमें इनका कवि, और प्रवादिगजकेसरी कर्ता जिनसेनसरिने भी इनका स्मरण किया है कहकर और हरिवंशपुराणमें सूक्तियोंका कर्ता क और इन्हें वादिगजोंका प्रभेदन करनेके लिए सिंह हकर स्मरण किया है। न्यायावतार, सम्मतितर्क, बतलाया है: कल्याणमन्दिरस्तोत्र और २० द्वात्रिंशिकायें (स्तु. श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपः श्रादीप्तमूर्तये । तियां) इनकी उपलब्ध हैं । यदि विक्रमका समय कण्ठीरवायितं येन प्रवादीमप्रभेदने ॥ ४५ ईसाकी छठी शताब्दी माना जाय-जैसा किप्रोमो क्षमूलर आदिका मत है-तो सिद्धसेन इसी समय. वीरनिर्वाण संवत् ६८३ के बाद जो ४ आरातीय में हुए हैं और लगभग यही समय जैनेन्द्रके बनमुनि हुए हैं, उनमें भी एक का नाम श्रीदत्त है। नेका है।* उनका समय वीरनिर्वाण सं० ७०० ( शक सं० ९५-वि० सं० २३० ) के लगभग होता है। यह भी ६ समन्तभद्र । दिगम्बर सम्प्रदायके ये बहुतसंभव है कि आरातीय श्रीदत्त दूसरे हो और जल्प ही प्रसिद्ध आचार्य हए हैं । बीसौ दिगम्बर प्रन्थनिर्णयके कर्ता दूसरे । तथा इन्हीं दूसरेका उल्लेख कारोन इनका उल्लेख किया है। ये बड़े भारी ताजैनेन्द्र में किया गया हो। फिक और कवि थे। इनका गृहस्थावस्थाका नाम वर्म था । ये फणिमण्डल (?) के उरगपुर-नरेशके ३ यशोभद्र । आदिपुराणसे संभवतः इन्हीं यशोभद्रका स्मरण करते हुए कहा है * सिद्धसेन ईश्वांकी ६ ठी शताब्दीसे बहुत पहले हो गगे --- है। क्यों कि विक्रमकी ५वीं शताब्दीमें हो जाने वाले त्रैलोक्यसारके कर्ता नमिचन्द्र'ने और हरिवंश आचार्य मल्लवादीने सिद्धसेनके सम्मतितर्क ऊपर टीका पुराणके कतीने वार निर्वाणस ६०५ वर्ष बाद शककाल लिखी थी। हमारे विचारसे सिद्धसेन विक्रमकी प्रथम शनामाना है। उन्हीकी गणनाके अनुसार हमने यहाँ शक संवत् ब्दिमें हुए हैं। दिया है। संपादक-जै. सा. सं.
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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