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________________ - अंक २] 1 गया है । यह पद्धति प्राचीन गुप्त और कदस्यवंशी राजाओंके समय तक प्रचलित थी, इसके कई प्रमाण पाये गये हैं । प्राचीन गुप्तांके शक संवन ३५७ से ४५० [वि० सं० ४५४ से ५८५ ] तक तक के पाँच ताम्रपत्र पाये गये हैं । उनमें चत्रादि संवत्सरीका उपयोग किया गया है और इन्हीं गुप्तांके समकालीन कदम्यवंशी राजा मृगेशवर्मा के ताम्रपत्रम भी पॉप संवत्सरका उल्लेख है। इससे मालूम होता है कि इस वृहस्पति संवत्सरका सबसे पहले उल्ले ख करनेवाले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्त्ता हैं और इस लिए जैनेन्द्रकी रचना का समय ईस्वी सन्की पाँचवी शताब्दि के उत्तरार्ध (विक्रमकी छठी शताइदीका पूर्वार्ध) के लगभग होना चाहिए। यह तो पहले ही बताया जा चुका है कि जैनेन्द्रकी रचना ईश्वरकृष्ण के पहले अर्थात् वि० सं० ५०७ के पहले नहीं हो सकती, क्यों कि उसमें वागण्या उल्लेख हैं । जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी पाठक महाशयने इन प्रमाणोंमें 'हस्तादेयेनुद्यस्य चेः', 'शरइच्छुक दर्भानिश कृष्णरणात् भृगुवत्साग्रायणवृपगणब्राह्मणवसिष्ठे' और 'गुरु दयाद् भायुक्तेन्डे' सूत्र दिये हैं, परन्तु ये तीनों ही जैनेन्द्रके असली सूत्रपाठ इन रूपोंमें नहीं हैं, अतएव इनसे जैनेन्द्रका समय किसी तरह भी निश्चित नहीं हो सकता है । , हाँ, यदि जैनेन्द्रकी कोई स्वयं देवनन्दिकृत वृत्ति उपलब्ध हो जाय, जिसके कि होनेका हमने अनुमान किया है. और उसमें इन सूत्रोंके विषयको प्रतिपादन करनेवाले चार्तिक आदि मिल जाये - मि ल जानेकी संभावना भी बहुत है - तो अवश्य atures मायके ये प्रमाण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होंगे। पाठक महाशय के इन प्रमाणोंके ठीक न होने पर भी दर्शनसारके और मर्कराके ताम्रपत्रके प्रमा रे यह बात लगभग निश्चित ही है कि जैनेन्द्र विक्रमकी ही शताब्दीक प्रारंभ की रचना है । ८६. जैनेन्द्रोक्त अन्य आचार्य | पाणिनि आदि वैयाकरणोंने जिस तरह अपनेसे पहले के वैयाकरणों के नामोंका उल्लेख किया है उसी उल्लेख मिलता है :तरह जैनेन्द्रसूत्रोंमें भी नीचे लिखे आचार्यका १- गहू भूतबलेः । ३-४-८३ | २ - गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम । १-४-३४ । - रुपसृजां यशोभद्रस्य । २-१-९९ । ४- रात्रेः रुतिप्रभाचन्द्रस्य । १-३-१८० | ५-वत्तेः सिद्धसेनस्य | ५-१-७ | ६ - चतुष्टयं समन्तभद्रस्य । ५-४-१५० । ग्रन्थकर्त्ता तो हो गये हैं, परन्तु उन्होंने कोई व्याजहां तक हम जानते हैं, उक्त उहाँ आचार्य करण ग्रन्थ भी बनाये होंगे, ऐसा विश्वास नहीं होता । जान पडता है, पूर्वोक्त आचायक ग्रन्थोंमें जो 'जुदा जुदा प्रकारके शब्दप्रयोग पाये जाते होंगे उन्हीं को व्याकरणसिद्ध करनेके लिए ये सव सूत्र रचे गये हैं । इन आचायोंमसे जिन जिनके ग्रन्थ उपलब्ध है, उनके शब्दप्रयोगों की बारीकीके साथ जांच करनेसे इस वानका निर्णय हो सकता है । आशा है कि जैन समाजके पण्डित गण इस विपयमें परिश्रम करनेकी कृपा करेंगे । १ भूतबलि । इनका परिचय इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार कथामें दिया गया है । भगवान् महावीरके निर्वाणके १८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही। इसके बाद विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, और अर्हदत्त नामके चार आरातीय मुनि हुए जिन्हें अंग और पूर्वके अंशोंका ज्ञान था । इनके बाद अर्हछलि और माघनन्दि आचार्य हुए । इन्हें उन अंशोंके भी कुछ अंश ज्ञान रहा। इनके बाद धरसेन आचार्य हुए । इन्होंने भूतवलि और पुष्पदन्त नामक दो मुनियोंको विधिपूर्वक अध्ययन कराया और इन दोनोंने महाकर्मप्रकृतिप्राभृत या पट्खण्ड नामक शास्त्रकी रचना की । यह प्रन्थे ३६ हजार लोक प्रमाण है। इसके प्रारंभका कुछ भाग पुष्प १ संभवतः यह ग्रन्थ सुडबिद्री ( मंगलोर) के जैनभमौजूद है।
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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