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________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग : ___-जनन्द्रका एक सूत्र है-"हस्तायेतुद्यस्ते- "शरद्वन्छुनकरणाग्निशनकृष्णदीद भृगुवत्सवमिष्ठवगणयचे. [:-३-३६ ] । एल सूनके अनुसार 'चि' ब्राह्मणामायणे " २-४-३६ ।। का 'चाय ' हो जाता है, उस अवस्थामें जब कि इस सूत्रकी अमोघवृत्तीमें हाथले ग्रहण करने योग्य हो, उत् उपसर्गके बाद न "आग्निशर्मायणो वार्यगण्यः । अग्निशमिरन्यः।' हो और चोरी करके न लिया गया हो । जैसे 'पुष्प इस तरह व्याख्या की है। प्रचायः हस्तादेय न होनस पुष्पप्रचय, उत् उपसर्ग हुन सूत्रोंसे यह बात मालूम होती है कि पाणिहोनेसे 'पप्पांचय' और चोरी होनेसे 'पुप्पप्रचय' निमें 'वार्षगण्य' शब्द सिद्ध नहीं किया गया है होता है। इस सत्र में उत् उपसर्गके बात जो 'चाय' जब कि जैनेन्द्र में किया गया है। वार्षगण्य सांख्य होने का निषेध किया गया है, वह पाणिनिमें,+ कारिकाके कत्ता ईश्वरकृष्णका दूसरा नाम है और उसके वानिकम और भाष्य में भी नहीं है। परन्तु सुप्रसिद्ध चीनी विद्वान् डा० टक्कुसुके मतानुसार पाणिनिकी काशिकावृत्तिमें ३-३-४० सूत्रके व्या- ईश्वरकृष्ण वि० सं० ५०७ के लगभग विद्यमान थे। ख्यानमें हैं-"उच्चयस्य प्रतिषधी वक्तव्यः' इस- इससे निश्चय हुआ कि जैनेन्द्रव्याकरण ईश्वरकृष्णसलिद्ध होता है कि काशिकाके का चामन और के वाद-वि० सं०५८७ के बाद और काशिकासे जयानित्यने इसे जैनन्द्रपरसे ही लिया है और पहले-वि०सं० ७७ से पहले-किसी समय जयादित्यकी मृत्यु वि. सं० ७९७ में हो चुकी थी वना है। ऐसा चिनी यात्री इसिगने अपने यानाविवरणम ३-जैनेन्द्रका और एक सूत्र है--"गुरुदयाद् लिखा है। अतः जैनेन्द्रव्याकरण वि० सं० ७१७ भायुक्तेऽद्वे" (३-२-२५)। शाकटायनने भी इसे से भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए। अपना २-४-२२४ वां सूत्र बना लिया है । हेमच. २-पाणिनि व्याकरणमें नीचे लिखा हुआ एक न्द्रने थोडासा परिवर्तन करके " उदितगुरो - द्युक्तेऽब्दे' (६-२-२५) बनाया है । इस सूत्रम द्वादश__ "शद्व-छुनकदीद् भृगुवत्माप्रायणे । वर्षात्मक बार्हस्पत्य संवत्सरपद्धतिका उल्लेख किया ४-१-१०२ । - सनानेटका सबसपकार १ इस संवत्सरकी उत्पत्ति वृहस्पतिकी गति परसे हुई है, इस कारण इसे वाईस्पत्य संवत्सर कहते हैं । जिस समय "शरच्छनकद ग्निशमकृष्णरणात् नृगुवत्सामायणवृष यह मालूम हुआ कि नक्षत्रमण्डलमसे बृहस्पतिकी एक गगन लगवासिष्ठं ।" ३-१-१३४ । प्रदक्षिणा लगभग १२ वर्षमें होती है, उसी समय इस संवइसीका अनुकरणकारी सूत्र शाकटायनमें इस त्सरकी उत्पत्ति हुई हांगी, ऐसा जान पड़ता है। जिस तरहसूर्यकी एक प्रदक्षिणाके कालको एक सौर वर्ष और उसके १२ वें भागको मास कहते हैं, उसी तरह इस पद्धतिमें गुरुके जन प्रमाणामे जहाँ जहाँ जनन्द्रका उल्लख हो, यहाँ वहाँ प्रदक्षिणा कालको एक गुरुवर्ष और उसके लगभग १२ व शब्दार्णव-चन्द्रिकाका मृत्रपाठ समझना चाहिए। सूत्रोंके भागको गुरुमास कहते थे । सूर्यसान्निध्यके कारण गुरु वर्षम नम्मर भी उनके अनुसार दिये गये हैं। कुछ दिन अस्त रहकर जिस नक्षत्रमें उदय होता है, उसी . इस्लादेय हस्तनादानेऽनुदि वाचि चिनो वन भवत्य. नक्षत्रके नाम गठवपके मासाँके नाम रख्खे जाते थे । य नेये। सुपप्रचायः । हस्तादेय इनि कि: पुप्पंप्रचयं गरुक मास वस्तुतः सैर वाके नाम हैं, इस कारण इन्हें सोत तहभिमरे । अनुदीति किं ! फलाञ्चयः । अस्तय चत्र संवत्सर. वैशाख संवत्सर आदि कहते थे। इस पद्धति निकि? फलप्रनयं करोति चौर्यण (शब्दार्णव-चन्द्रिका को अच्छी तरह समझने के लिए स्वर्गीय पं० शंकर यालकृष्ण दीक्षितका " भारतीय ज्योतिःशास्त्राचा इतिहास" और पाणिदिमा मूत्र इस प्रकार है-"हस्तादान रस्तये" डॉ० फलाटके 'गुप्त इन्क्रिप्शन्म' में इन्हीं दीक्षित महाग (२-३-४०) यना अंगरेजी निबन्ध पहना चाहिए। सूत्र है: तरह का है:
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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