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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 92 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 'अनेकांत' ही वस्तु का धर्म है और ‘स्याद्वाद' कहने की शैली है, जो सब कुछ करा रही हैं कैसी है आत्मा ? सबसे निकट जो वस्तु है, उसका नाम है आत्मां जो कुछ परिणमन हो रहा है वह तेरी आत्मा की देन हैं इसलिये आप किसी को मत पकड़ो, इस आत्मा को पकड़ लों माँ जिनवाणी कहती है कि तुम सो रहे हो तो मैं तुम्हें जगा दूंगी और यदि तुम बहाना बनाकर पड़े हो तो तुम्हें कोई नहीं जगा सकतां जो जानकर सोया है उसे कोई नहीं जगा सकता; पर जो सचमुच सोया है, उसे जगाया जा सकता हैं इसलिये कहा है मोह- नींद के जोर, जगवासी घूमें सदां कर्म -चोर चहुँ ओर, सरवस लूटें सुध नहीं बा. भा. इसीलिये तो आपको जिनवाणी माँ जगा रहीं 'सतगुरु देय जगाए', मोह-नींद जब उपसमें" भो ज्ञानी! अग्नि को गर्म करने के लिये क्या बाहर से ऊष्णता लानी पड़ती है ? यह तो उसका निज धर्म हैं ऐसे ही किसी के कहने से शीश तो झुकाया जा सकता है पर किसी की श्रद्धा नहीं झुकाई जा सकतीं अरे! बुंदेलखण्ड के लोग कहते हैं- 'मार-मार' के ऐसा नहीं करना जिसके मन से मिथ्यात्व की चिड़िया भग जाए, तो सम्यक्त्व-रूपी फसल की अपने आप रक्षा हो जाएगी इसलिये, अंतर में चिंतवन करना कि आप क्या हो? वास्तव में मेरी श्रद्धा कैसी है ? निष्कंप/ अचल है कि नहीं ? कहीं सामाजिकता के नाते तो नहीं? श्रद्धा का आधार क्या है ? अहो! श्रद्धा जब होती है तब उसमें आत्मा ही आधेय होता है और आत्मा ही आधार होता हैं यह अभेद श्रद्धान हैं भो मनीषी! स्व में रमण चल रहा है, वही निश्चय–सम्यक्त्व है, वही निश्चय-ज्ञान, वहीं निश्चय-चारित्र हैं जो कहा जा रहा है, वह सब व्यवहार है, सहचर है, संयोगी हैं परंतु अनुभव अवक्तव्य हैं शब्दों में अनुभव की व्याख्या नहीं हैं ये सब स्थूल बातें हो रही हैं अब अंदर की बातें आप जानो या आप्त जानें, तीसरा कोई जानता ही नहीं हैं परंतु विपरीत-अभिप्राय छोड़कर जो श्रद्धा होगी, वही आत्मरूप श्रद्धान है, वहीं सम्यकदर्शन हैं AAAAAA LOO.00000000 मंगल कलश Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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