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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 91 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 सम्यक्दर्शनं" जो प्रयोजनभूत तत्त्व है, उन पर श्रद्धा करना सम्यक्त्व हैं भगवन् कुंदकुंद स्वामी ने कहाः आत्मा पर श्रद्धा करना सम्यक्त्व हैं समंतभद्र स्वामी कहते हैं-देव, शास्त्र, गुरु पर श्रद्धा करना सम्यक्त्व हैं जहाँ "तत्त्वार्थ श्रद्धानं" शब्द आ जाता है, वहाँ सब परिभाषायें समाविष्ठ हो जाती हैं कुंदकुंद स्वामी ने चौरासी पाहुड लिखे हैं 'अष्ट-पाहुड' में कुंदकुंददेव लिख रहे हैं हिंसारहिए धम्मे, अट्ठारह-दोष वज्जिये देवें णिग्गंथे पवयणे, सद्दहणं होइ सम्मत्तं 90(मो.पा.) अठारह -दोषों से रहित देव, निग्रंथ गुरु, जिन प्रवचन, हिंसा से रहित धर्म इन पर जो श्रद्धान है, उसका नाम सम्यकदर्शन हैं आचार्य भगवन् कहते हैं: उस तत्वार्थ का उदय कहाँ से हुआ है? आगम कौन सी वस्तु है ? अहो! आप्त के वचन का नाम ही तो आगम हैं आगम पर श्रद्धान करते हो और आप्त को नहीं मानते हो तो मिथ्यादृष्टि हों आप्त के वचन को जिनवाणी मानती है, पर हम आप्त को नहीं मानते, जिनदेव को नहीं मानतें भो ज्ञानी! जिनदेव को नहीं मानोगे तो जिनवाणी कहाँ से आयी? ठीक है, मैं आप्त को मान लेता हूँ , जिनवाणी को मान लेता हूँ, लेकिन हम गुरु को नहीं मानेंगें अरे! तुम यह तो बताओ कि जो आप्त ने कहा है, वो लिखा किसने है? निबद्ध किसने किया, गुंथन किसने किया, ग्रहण किसने किया, झेला किसने है? यदि हमारे आचार्य-परमेष्ठी न होते, गुरु न होते, तो जिनेन्द्र की वाणी तुम्हें देता कौन? इसलिये, जो 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यक्दर्शनं मानता है और देव-शास्त्र-गुरु को भी मानता है, वही सम्यक्त्वी हैं भो ज्ञानी! अलग से शब्द जोड़कर दीवार खड़ी मत करों जैसा आगम है, वैसा आगम स्वीकार करते जाओं आत्म-श्रद्धा, देव-शास्त्र-गुरु से हटकर नहीं है और तत्त्व का श्रद्धान आत्मा से हटकर नहीं है, क्योंकि तत्त्वों में पहला प्रयोजनभूत तत्त्व जीव हैं पर जब तक आप 'जीवादि' शब्द नहीं लगाओगे तब तक जीव की सिद्धि भी नहीं होगी इसलिए अजीव को भी जानना जरूरी हैं सिक्के पर यदि एक पहलू नहीं होगा तो दूसरा कहाँ से होगा? इसलिये दो का जोड़ा हैं जीव के दो भेद हैं, त्रस व स्थावरं यह संसार की दशा है, बिना जोड़े के तुम चल नहीं सकते हों भो चेतन! इसीलिये व्यवहार-रत्नत्रय और निश्चय-रत्नत्रय दोनों का जोड़ा हैं जब तक स्त्री व पुरुष का संयोग नहीं है, तब तक संतान का जन्म नहीं हैं जब तक व्यवहार व निश्चय रत्नत्रय का जोड़ा नहीं है, तब तक सिद्ध-संतति का जन्म नहीं हैं अहो! अनेकांतदृष्टि बना लो तो चित्त और पट्ट दोनों आपकी ही हो जाएँगी जब तक अनेकांतदृष्टि नहीं है, तब तक पट्ट हो तो पट्ट ही रहोगे और चित्त हो तो चित्त ही रहोगें Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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