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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज : Page 90 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 अहो ! श्रेणिक का पुण्य कितना बड़ा होगा जिसने साक्षात् तीर्थेश प्रभु के चरणों में साठ हजार प्रश्न किए और फिर भरतेश का कितना प्रबल पुण्य होगा जिसने प्रथम तीर्थेश की वाणी सुनीं परंतु हम लोग भी अभागे नहीं हैं, क्योंकि उन प्रभु वर्धमान की वाणी को सुन रहे हैं जिनवाणी के प्रसाद से आप आँखे बंद करके सारे विश्व की वंदना कर सकते हों आँखे बंद करो और चिंतवन करो अभी तुम नंदीश्वरद्वीप की भी वंदना कर सकते हो, जहाँ कि तुम जा नहीं सकते हो, पर वही फल मिलेगा जो सौधर्म इन्द्र को साक्षात अभिषेक एवं वंदना करके मिलता हैं नंदीश्वरद्वीप में उनके भाव तो किसी समय इधर-उधर हो सकते हैं, पर चिंतवन करने वाले के नहीं हो सकते; क्योंकि वह चिंतवन से जा ही रहा हैं तन से पहुँचने वाला एक बार भाग सकता है, पर मन से पहुँचने वाला कहीं नहीं जा सकता हैं क्योंकि उसे श्रद्धा, विश्वास और प्रतीति हैं भो ज्ञानियो! सम्यक्दर्शन कह रहा है कि यदि मैं खिसक गया तो तुम श्रावक नहीं बचोगे, साधु नहीं बचोगें मुझे संभालकर रखनां कितने ही शिखर बना लेना, उन पर कंगूरे बना लेना, ध्वजा चढ़ा देना, पर नींव की ईंट कह रही है, ध्यान रखो, मेरे ऊपर मिट्टी डाल दों मैं उखड़ गया तो तुम्हारे एक भी कंगूरे नहीं बचेंगे सम्यक्त्व कहता है, ध्यान रखो, वह ज्ञान का कलश और चारित्र की ध्वजा सब नीचे आ जाएगी यदि मैं खिसक गया तो इसलिए मेरे ऊपर विश्वास करों जो कुछ हो रहा है सब विश्वास पर ही हो रहा है, क्योंकि श्रद्धा का भगवान होता है, श्रद्धा का गुरु होता है, श्रद्धा की जिनवाणी हैं श्रद्धा नहीं है तो पाषाण की प्रतिमा है, श्रद्धा नहीं है तो चर्म का शरीर है और श्रद्धा नहीं है तो यह कागज की किताब हैं विश्वास है तो पाषाण में परमेश्वर नजर आता हैं चर्म में गुरु का धर्म दिखता है और कागजों में वीतरागवाणी झलकती हैं श्रद्धा से बड़ी वस्तु संसार में है ही नहीं हृदय से हृदय मिलता है तो श्रृद्धा है, नहीं तो लगता है कि हम कोई अपरिचित हैं जब श्रद्धा बढ़ती है तो लगता है कि कितने भवों का परिचय हैं यह भी सत्य है कि अपने पास केवली नहीं हैं देखो पंचमकाल के भव्यों को इन बेचारों के पास कोई तीर्थंकर नहीं, केवली नहीं, गणधर नहीं, धर्म- पुरुषार्थ का कोई फल प्रत्यक्ष दिख भी नहीं रहां यहाँ पर देव / विद्याधर भी नहीं आ रहे, फिर भी लोगों का विश्वास / श्रद्धान अगाध हैं इस काल में भी वे साक्षात् नहीं, तो प्रतिमा में भगवान को निहार रहे हैं, जिनवाणी में जिनेंद्र की वाणी को देख रहे हैं और मुनि में गुरु को देख रहे हैं इससे बड़ा कोई विश्वास नहीं हैं भो चेतन ! इस विश्वास के फलस्वरूप यहाँ बैठकर ढोक लगाने में आपके कर्म की निर्जरा भी उतनी ही हो रही है जितनी सीमन्धरस्वामी के चरणों में बैठकर ढोक लगानेवालों की हो रही थीं आचार्य देवसेन स्वामी ने 'भावसंग्रह' ग्रंथ में लिखा है- चतुर्थकाल का श्रमण एक हजार वर्ष तक तपस्या करे और पंचमकाल का श्रमण एक वर्ष तक वैसी ही तपस्या करे तब भी पंचमकाल का श्रमण साधना में श्रेष्ठ हैं इसलिए श्रद्धा जैसी आज है, अभी है, उसमें कमी मत करनां यहाँ आचार्य महाराज कह रहे हैं- " तत्त्वार्थ श्रद्धानं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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