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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 89 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 संबन्ध बनाओगे तो राग-द्वेष होगा संबंध छोड़ दो, दुःख समाप्त हो जाएगां जब तक संबंध नहीं छोड़ोग, तब तक सुखी नहीं हो पाओगें इसलिए, संबंध छोड़ दो तो सुख ही सुख हैं 3 भो ज्ञानी ! भगवन् अमितगति ने बड़ा सुन्दर सूत्र लिखा है संयोग की महिमा देखो कि एक जिए तो लाख हँसे, एक मरे तो लाख रोए और जिसका संयोग समाप्त, वह न हँसे न रोएं एक सम्राट के प्रति ईर्ष्या ने घर कर लियां पड़ोसी सम्राट चाहता था कि इसके राज्य को मैं अपने राज्य में मिला लूँ पर कोई उपाय नहीं दिख रहा था कि इसका घात कैसे हो, क्योंकि वह सबल थां खोजते खोजते मालूम हुआ कि यह गोमटेश बाहूबली जाते हैं एवं वहाँ जाकर उनके चरणों का जल पीते हैं, क्यों न उस जल में जहर मिला दें? लोभ बड़ा खतरनाक होता हैं उस पड़ोसी राजा ने पुजारी को लोभ देना शुरू कर दियां पुजारी लोभ में आ गया और कहा कि आप चिंता मत करो आपका काम हो जाएगा परंतु जिसके ह्रदय में प्रभु बैठा हुआ है, उसका कोई बाल- बांका नहीं कर सकता हैं भो ज्ञानी ! शरीर को जहर दिया जा सकता है, पर आज तक किसी ने पुण्य को जहर नहीं दियां कौरवों ने लाक्षागृह में पांडवों के शरीर को जलाने की बहुत चेष्ठा कर ली थी, परंतु हे कौरवो ! तुमको करना ही था, तो पुण्य को जलाने के विचार कर लेतें अहो! सम्राट रोज की भांति पहुँचता है, भगवान की वंदना करता है, नमस्कार करता है, स्तवन करता हैं स्तवन करके कहता है: पुजारीजी ! चरणोदक दों वह कटोरा भर के लाया, परंतु उसका हाथ कांपने लगता हैं अहो! लोभ तो आज आया है पहले तो वह भगवान का भक्त थां शिशु अवस्था में जो संस्कार माता-पिता से प्राप्त किए, जीवन में एक दिन वे संस्कार सामने आकर खड़े हो जाते हैं और हमें पाप के गर्त में गिरने से बचा लेते हैं पुजारी का हृदय काँप उठता है सम्राट ! मुझे क्षमा कर दो मेरे अंदर पाप ने निवास कर लिया हैं मैं पापी तो नहीं था, पर पैसा बड़ा पापी है, जिससे आज आपकी हत्या करने का विचार कियां राजन् ! इसमें जहर मिला हैं मैं जहर कैसे आपको पिलाऊँ? मैसूरनरेश कहता है कि आपकी दृष्टि में जहर हो सकता है, पर आप जैसे देते थे वैसे मेरी अंजुली में दीजिएं यह तो प्रभु के चरणों का चरणोदक हैं अहो ! अंजुली में लिया और घूँट पी लियां हे मुमुक्षु आत्माओ! इन वीतरागी चरणों की श्रद्धा से जहर का प्याला अमृत का काम कर गया, विष निर्विष हो गयां भगवान जिनेश्वर का स्तवन करने मात्र से जहर भी अपनी शक्ति को खो गया, क्योंकि ये श्रद्धा थी, विश्वास थां इसी आस्थारूपी परिणामों की प्रवृत्ति से कर्मों का संक्रमण हो गयां इसलिए सब कुछ चला जाए, चिंता नहीं करना, परंतु श्रृद्धा न जा पाएं भो ज्ञानी! मैं समझता हूँ कि अमीरी पुण्य की है, गरीबी पाप की है; पर श्रद्धा पुण्य-पाप दोनों से परे हैं पुण्य व पाप दोनों से जो परे होता है, वही मोक्षमार्ग हैं पुण्य में लिप्त रहोगे, तब तक मोक्ष नहीं मिलेगा और पाप में लिप्त रहोगे, तब तक भी मोक्ष नहीं मिलेगा क्योंकि पुण्य व पाप दोनों से रिक्त आत्मा ही परमात्मा बनती हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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