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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 79 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 हैं यदि आप ऐसा मानकर चलें कि सभी मेरे शत्रु हैं, तो आपको कोई मित्र मिलने वाला नहीं यदि साधु को श्रावक पर विश्वास नहीं हो तो गमन ही नहीं हो सकता अपरिचित हैं, फिर भी परिचित हैं निग्रंथ योगी को जिस ओर तुमने मोड़ दिया, उसी गली में चल देते हैं कितना निश्चिन्त जीवन होता हैं निश्चिन्त जीवन जीना है तो सच्चे साधु बनकर बैठ जाओं जिनवाणी कह रही है-बेटा! हम तुमको विकल्प में नहीं रखेंगें तुमको यह भी विकल्प नहीं होगा कि कल मेरा किसके यहाँ भोजन होगां तुम तो प्रतिज्ञा करके निकल जाना, आखड़ी ले करके निकल जानां भो ज्ञानी! आचार्य शान्तिसागर महाराज एक बार चर्या को निकले, तो सहजता में चले गये और ऐसी आखड़ी ली कि जिसके द्वारे पर रत्न पड़े होंगे, वहीं आहार करूँगां एक दिन हो गया, दो दिन हो गये, फिर भी संत की मुस्कान नहीं गई; क्योंकि पराधीन नहीं थे, स्वाधीन थें तीन दिन हो गये, अब तो श्रावकों में हलचल मच गईं भौंरा पुष्प से रस तो लेता है, पर पुष्प में छिद्र नहीं करता है; इसी प्रकार यति श्रावक से आहार तो लेते हैं, परंतु उसे कष्ट नहीं देतें यह मधुकरवृत्ति हैं आचार्यश्री को घूमते-घूमते सात दिन हो गये धन्य हो यति की साधना! धन्य हो शान्तिसागर महाराज! इधर एक सेठानी इतनी विकल थी कि सात दिन हो गये, आचार्य महाराज की चर्या नहीं हो पाईं जब एक-दो चक्कर लगते हैं तो आप कैसे घबराते हो और फिर विधि मिलाते कैसे मशीन से चलते हैं हाथ आपके? इधर से उधर, यूँ लोटा, यूँ फल पटकां उसी गिरा-पटक में सेठानी कलश उठा रही थी और झटका लगा तो स्वयं के गले के मोती की माला टूट गई और पूरे में बिखर गईं आचार्य महाराज खड़े हो गये, क्योंकि विधि थी कि मोती-माणिक द्वार पर पड़े होने चाहिये भो ज्ञानी! विधि बलवान् है! जब विधि होती है, तभी विधि मिलती हैं विधि नहीं है, तो विधि मिलनेवाली नहीं हैं कुण्डलपुर में एक श्रावक ने चार माह तक चौका लगाया, अंतिम दिन था चातुर्मास का और आचार्य महाराज के मन में भी विकल्प आ गयां अब विधि तो नहीं मिल रही, इसी श्रावक के यहाँ ही चलों अब देखना, श्रावकराज सबेरे से पधार गये, बोले-महाराज! आज तो आखिरी दिन हैं अहो! वह दिन भी चला गया, क्योंकि निग्रंथ योगी किसी के निमंत्रण पर नहीं जाते, किसी के कहने पर नहीं जातें पर देखना, विधि याने भाग्य, विधि याने कर्म, इसलिये आप कभी व्यर्थ मत रोनां सब विधि पर छोड़ दो, परंतु पुरुषार्थ अवश्य करों इसलिये अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि जिन विषमताओं में लोक रोता है, उन विषमताओं में प्रभु हँसते हैं योगी सोचता है कि मेरी गुप्तियाँ व समितियाँ पहरा दे रही हैं, धर्म के दस ताले पड़े हैं और वज-कपाट मेरा सत्यशील का है, वहाँ भय किस शत्रु का है ? भो ज्ञानी! यदि शत्रु प्रवेश करेगा भी तो चरण की दीवारों को ही तोड़ पायेगा, परन्तु धर्म के वज्र कपाट में उसका प्रवेश संभव नहीं हैं निग्रंथ योगी चिन्तन करता है कि पाषाण और स्वर्ण में, काँच व कामिनी में जिसकी समदृष्टि है, वही संत-दृष्टि हैं यदि इनके पीछे साधक पड़ गया, तो उसे अनन्त-चतुष्टय की प्राप्ति असम्भव हैं इसलिये, कौन क्या कह रहा है-यह Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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