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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 80 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 मेरा विषय नहीं, अज्ञानियों का विषय है, अल्पज्ञों का विषय हैं जिनके 'चक्षु' पर को निहार रहे हैं, उनके चक्षु स्वयं के लिये नहीं हैं "नियमसार" में कहा गया है जिससे निर्मलता हो, चित्त में विशुद्धि हो, कर्म की निर्जरा हो, वह जिनेन्द्र के शासन में 'ज्ञान' हैं पर को देखना अनाचार है, निज को देखना ही शील है, वही संयम है; अन्यथा विकल्पों के अलावा कुछ भी नहीं हैं लोक में नाना जीव हैं, नाना द्रव्य हैं, नाना परिणमन हैं किस-किस के परिणामों को तुम परिवर्तित कराओगे? भो ज्ञानी! स्वयं के घर में जब तुझे अपने पर विश्वास नहीं, तो पराये के विश्वास को क्यों देख रहा है? अपने भावों से पूछ लो कि मेरी परिणति कहाँ से कहाँ जा रही हैं सब कुछ जानने का पुरुषार्थ करोगे, तो आप कुछ भी नहीं जान सकोगें तुम्हारा पूरा जीवन निकल जायेगा, पर कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकतें एक पिंजड़े में दो पक्षी कैसे पलेंगे? पिंजड़े में दो पक्षी पलेंगे नहीं, लड़ेंगें योगी निज कार्य के वश से कुछ कहते हैं, फिर उसको भूल जाते हैं, क्योंकि उनके पास संयम का पक्षी बैठा हैं यदि असंयम को पालेंगे तो बेचारा संयम पलेगा ही नहीं, इसलिये योगी वैभव से रहित होते हैं इस जीव ने योग के वेश को अनंत बार देखा है, पर योग-स्वभाव को नहीं देखा; क्योंकि योगी-स्वभाव बाह्य चक्षुओं से नहीं देखा जाता हैं योगी-स्वभाव का वेदन होगा, तभी तो शेर को देख कर वह घबराते नहीं क्योंकि उन्हें शेर में भी शेर नहीं दिखता है, गीदड़ में भी गीदड़ नहीं दिखता हैं योगी-स्वभाव तो देखो, सप्तव्यसनी को देखकर उसे सप्त-विषयों का व्यसनी नहीं कहा, उसे भी उन्होंने मुनि बना लियां परंतु धिक्कार हो उन योगीवेशधारियों को जो योगी में योगी को नहीं देख पाते हैं धन्य हो उस योगी को, जो सप्त व्यसनी को योगी बना लेते हैं आचार्य शान्तिसागर महाराज के संघ में पायसागर आचार्य महाराज हो गये हैं, जो कि मुनि बनने के पूर्व सप्त-व्यसनी जीव थें महाराज का विहार हो रहा थां लोग आ गये-महाराजश्री! हमारे नगर में प्रवेश नहीं करना, क्योंकि डर था कि कोई उपद्रव न हों तुम सोचना कि उपद्रवी में भगवान् बैठा था, पर निकालने वाला चाहियें जितने भगवान् बने, सब उपद्रवी ही तो थें भगवान महावीर कौन साधु थे, वह तो इतने उपद्रवी थे कि वे भगवान् के पास सुधर नहीं पायें 363 मिथ्या पंथ चलाने वाले वे मारीच के जीव थे, भगवान् बने हैं इसलिये, उपद्रवी से भयभीत न हों, उपद्रवों से भयभीत रहों तो जैसे ही महाराज चल दिये, वे सज्जन पहले ही मिल गये लोग सोचने लगे कि हाय! अब क्या होगा? उस पारखी जौहरी को देखो, उपद्रवी को जैसे ही सामने देखा, अपना कमण्डल पकड़ा दियां हाय, अब तो गया कमण्डलं वे नहीं सोच रहे थे कि यह भावी योगी हैं प्रवचनसभा में बगल में बिठा लियां सबकी आँखें आचार्य महाराज के बाद उसके पास ही थीं जैन आचार्य भगवन् की पावन पवित्र वाणी सुनते ही वह नवयुवक, जो सप्तव्यसनी था, सभा में खड़ा हो गयां प्रभु! मैं आज से अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत लेता हूँ आशीर्वाद दे दिया और वह बने योगी पायसागर, जो कड़कती दोपहरी में व ग्रीष्मऋतु में, बालू में, घुटनों के बल, पद्मासन में सामायिक करते थे लोगों ने पूछ लिया-महाराज! इस काल Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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