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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 74 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 भो ज्ञानी! तुम पहले श्रावक धर्म का उपदेश मत देना, पहले यति धर्म (महाव्रत ) का कथन करनां यदि महाव्रत स्वीकार करने की सामर्थ्य नहीं हो, तो फिर अणुव्रत की बात करनां मुमुक्षु आत्माओ ! माँ जिनवाणी कहती है - भोग भोगना तो पशुवृत्ति है, बंध का कारण हैं अहो! चारित्र का कथन जितना सरल होता है, चर्या उतनी कठिन होती हैं किंतु वास्तव में चर्या से सरल विश्व में कोई पदार्थ नहीं होता, विषयों का सेवन कठिन होता हैं भोगने में ग्लानि होती है, शर्म लगती है, परंतु संत बनने में कोई शर्म नहीं लगतीं जिसको छिपाकर किया जाए, वही तो पाप हैं यदि कोई धर्म और पाप की परिभाषा पूछे तो क्या बताओगे ? जितने काम छिपकर किए जाते हैं, वे पाप हैं मनीषियो ! तुम कितने ही कमरे के अंदर बंद होकर पाप कर लेना, परंतु जिस दिन विपाक आयेगा उस दिन छिपा नहीं पाओगें वह तो सामने आऐगा हीं जिसके कहने में ग्लानि न हो, बताने में ग्लानि न हो, दिखाने में ग्लानि न हो, वह पुण्य कर्म हैं जिसके सुनने - सुनाने में ग्लानि हो, कहने में ग्लानि हो, दिखाने में ग्लानि हो, समझ लो इससे बड़ा कोई पाप कर्म नहीं हैं भो ज्ञानी ! संसार कठिन है, परमार्थ कठिन नहीं हैं आप जो कुछ करते हो, सप्त व्यसनों में उलझ कर करते हों सबकुछ तेरा पराधीन हैं बाल भी कटवाना होता है तो नाई की दुकान के चार चक्कर लगाते हॉ पर देखो साधक- वृत्ति, जब मन में आ जाए तो किसी से नहीं पूछते केशलोंच के लिए अर्थात् योगी की प्रत्येक क्रिया स्वाधीन हैं एक छोटा सा बालक आया, बोला- महाराज! हमें प्रायश्चित दे दो, हमारा रात्रि भोजन का त्याग था, जो हमसे टूट गयां मैंने पूछ लिया कि कैसे टूट गया? बोले- हमने नहीं, चाचा ने जबरदस्ती खिला दियां हमने मना किया, तो वे मारने को तैयार हो गएं अब देखना संसार की दशा, उस छोटे से बच्चे का हृदय कह रहा कि नहीं खाना, परंतु चाचा ने जबरदस्ती खिला दियां भो ज्ञानी! इसलिए समझ जाना, सँभल जानां बंधों के बीच में तुम निर्बंध होने की बात कर रहे हो, यह तो आप गाय के सींग से दूध निचोड़ रहे हों आप कहोगे जिनवाणी सुनाओ, वे कहेंगे पानी पिलाओं अतः, बंधुओं के बीच निर्बंध नहीं हो सकते, निग्रंथों के बीच जाओगे तभी निर्बन्ध हो पाओगें व्रत, समिति, गुप्ति, द्वादस अनुप्रेक्षा, चारित्र ये निर्बंधता के हेतु हैं इसलिए आचार्य भगवन् अमृतचंन्द्र स्वामी कहते हैं कि आप लोग गरीब नहीं हो, दरिद्र नहीं हों आपका द्रव्य आपको दिख नहीं रहा, इसलिए आप दरिद्री मान बैठे हों अहो! जितने धनाढ्य अर्हन्त प्रभु है, जितने धनाढ्य सिद्ध परमेश्वर हैं; उससे आप किंचित भी अल्प धनाढ्य नहीं हों अंतर इतना है कि तुम्हारे मोती दीवार में छिपे हैं अतः यह मोह की दीवारें तोड़ दो और अपनी सिद्ध- पर्याय पर दृष्टिपात करों क्या अशुद्ध को ही शुद्ध मानकर बैठे रहोग? यही मान्यता तुम्हें शुद्ध नहीं होने दे रही हैं जिस दिन अशुद्ध को अशुद्ध मान लोगे और शुद्ध को शुद्ध जान लोगे, उस दिन तुम शुद्ध होने का पुरुषार्थ प्रारंभ कर दोगें भो ज्ञानी! ध्यान रखना, बीज में वृक्ष तो होता है, पर बीज वृक्ष नहीं होतां तिल में तेल होता है; लेकिन तिल, तेल नहीं हैं बिना पिरे तिल से तेल नहीं बनेगां चैतन्य ही परमेश्वर है, लेकिन प्रत्येक चैतन्य Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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