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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 75 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 परमेश्वर नहीं जब भी परमेश्वर बनेगा तो चैतन्य ही बनेगां पाषाण में प्रतिमा है, परंतु प्रत्येक पाषाण प्रतिमा नहीं हैं जब भी प्रतिमा निर्मित होगी तो पाषाण से ही होगीं लेकिन बिना छैनी हतौड़ी के बिना शिल्पकार के पाषाण प्रतिमा बनेगी नहीं भेदविज्ञान की छैनी, चारित्र की हतौड़ी और चैतन्य शिल्पकार होगा तो जो व्यर्थ के उपल - खण्ड हैं, शिल्पकार उन्हें तोड़-तोड़ के फेंक देगा ऐसे ही आठ कर्मों के जो उपल- खण्ड हैं, उसे भेदविज्ञान की छैनी से टांक-टांक कर तुम निकाल दो, तेरा आत्म प्रभु प्रकट हो जाएगां जैनदर्शन में बनाई गई प्रतिमा की पूजा नहीं की जाती, जैनदर्शन में तो निकाली हुई प्रतिमा की ही पूजा होती हैं प्रतिमा तो त्रैकालिक उसमें विराजमान है, ऐसे ही तेरे में तेरा प्रभु त्रैकालिक विराजमान है, परंतु कर्मों से ढका हैं मात्र भेद - विज्ञान का बाण छोड़ दो, तेरा प्रभु प्रकट हो जाएगां पर ध्यान रखना, निज के प्रभु को निकालने के लिए षट्स का भोजन करते-करते तू प्रभु को कैसे निकाल पाएगा ? षट्स में लिप्त आत्माओ ! यदि तुम अपने प्रभु को निकालना चाहते हो, तो जब तक शुद्ध भोजन नहीं करोगे तब तक शुद्ध चेतना जागृत नहीं होगीं ‘मूलाचार' में गाथा 489 की टीका में शुद्ध भोजन का अर्थ है पानी में दाल उबालकर रख दो, पानी में साग उबालकर रख दों उसमें नमक नहीं डालना, कोई बघार नहीं देनां यानि एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का प्रवेश बिल्कुल नहीं करना जो शुद्ध नीरस भोजन है उसका नाम शुद्ध भोजन और जो मिला दिया वह है विकृ त भोजन, अशुद्ध भोजनं अहो ! भोजन ही विकार का जनक हैं भोजन में विकृति है, तो तेरे भावों में विकृति का उदय हो जाता है यदि निर्विकारता को हासिल करना चाहते हो, तो निर्विकार वस्तु को ही देखना होगा जैसा धवल वस्त्र है, वैसा धवल परिणाम रहेगां तुम्हारी वेषभूषा में, भोजन में, इन सब में संयम होना अनिवार्य है, तब निर्विकारी / शुद्ध बन पाओगें - - भो चैतन्य! बाहर की चमकों को नहीं, अंदर की चमक देखों श्रावकाचार में इसका सर्वत्र निषेध किया है, क्योंकि आप भड़को या न भड़को, तुम्हारे भड़कीले वस्त्र देखकर दूसरे की भावना भड़क गयी, तो तुम ही दोषी हों इसलिए, हे निग्रंथ! तू कर्मों से निर्लिप्त होना चाहता है तो मल से लिप्त रहां मल ही संत का आभूषण हैं इसलिए, मल परीषह नाम का एक परीषह होता है बाईस परिषहों में आचार्य अमृतचंद स्वामी कह रहे हैं कि धरती के देवता संतों के हम चरण भी छू लेते हैं और आचरण भी छू लेते हैं आगम में लिखा है साधुनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता ही साधवाः कालेन फलितं तीर्थ, सद्या साधु समागमः Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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