SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 48 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 आचार्य अमृतचंद्र स्वामी आपसे कुछ कहने वाले हैं कि मुझे तभी सुनना, जब आपके पास पाँच अणुव्रत हॉ और तीन मकार का त्याग हॉ पाँच अणुव्रत और अष्टमूलगुण नहीं हैं तो जिनवाणी के सुनने के भी पात्र नहीं हों समझना, जिसका रात्रि भोजन का त्याग नहीं, पानी छान कर पीने का नियम नहीं, अमक्ष्य सेवन का त्याग नहीं, वह जिनवाणी के पृष्ठों को पलटने का अधिकारी भी नहीं हैं हमने तो जिनवाणी को उपन्यास बना डाला कि यात्रा कर रहे हो तो बगल में दबायी और चले दियें अहो ! अविनय करोगे तो परिणाम अच्छा नहीं होगां माँ जिनवाणी कह रही है मुझे तभी छूना, जब तुम्हारे पास अष्टमूलगुण हों ध्यान रखना, कम से कम उस पुरुष को समझने के लिए ऐसा पुरुषार्थ करना कि पुरुष मेरी समझ में अच्छी तरह से आ जायं यदि निर्मल पुरुषार्थ नहीं किया तो पुरुषार्थसिद्धियुपाय ग्रंथ पूरा हो सकता है परंतु पुरुष की प्राप्ति संभव नहीं हैं अरे ! बिल्कुल नहीं घबराओ, जब तेरे अंदर सिद्ध बनने की शक्ति है तो मनुष्य और श्रावक बनने की शक्ति कैसे नहीं है? भो ज्ञानी! एक छोटी सी बात श्रावक की कर रहे हैं श्रावको बारिश का मौसम है, कितने दिन का आटा खा रहे हो आप लोग? चटका दिया बटन को और पिस गया आटां पर देखने गये थे कि क्या पिसा है ? अरे! चिदात्मा की बात तो करो, पर चैतन्य आत्मा पर करुणा करके करों पहले मातायें पाटे को उठाकर, झाड़-पाँछ कर फिर भजन गाते-गाते आटा निकालती थीं महाराज रोज-रोज मशीन को कौन खोलेगा ? जितने तिरूले और सूड़े उसमें रहते हैं, सब पिस जाते हैं और सबका स्वाद उस आटे में आप लेते हैं और कहते हैं, महाराजश्री! मैं माँस का त्यागी हूँ दो इंद्रिय से माँस की संज्ञा प्रारंभ हो जाती है, इसलिए ध्यान रखना, यदि आप वास्तव में आगम और जैनत्व को समझ रहे हो तो अपनी चर्या और क्रिया को अब सुधारना प्रारंभ कर देनां जब सुबह से ही हिंसा प्रारंभ हो जाती है, फिर मध्याह और रात्रि में परिणाम निर्मल कैसे होंगे? भो ज्ञानी! जब तक विवेक नहीं जागेगा, तब तक भगवान नहीं बन पाओगें आचार्य महाराज ने पहले आपको शुद्ध की बात बता दी और निश्चय - व्यवहार का खुलासा कर दिया, अब नौवीं कारिका में कह रहे हैं - तू सबसे भिन्न है, पुरुष हैं जब तू धर्म क्षेत्र में आये तो मात्र आत्मा बनकर आना, पुरुष, स्त्री, नपुंसक बनकर मत आनां यदि तीन वेदों से बनकर आओगे तो तुम्हारे अंदर में विकार सतायेंगे और तुम्हें परमात्मा नहीं दिखेगा यह कारिका अखंडता / एकता के लिये परम रामबाण औषधि हैं मनीषियो ! भगवान अमृतचंद स्वामी कह रहे हैं - ( अस्ति पुरुषरचिदात्मा) यह चैतन्य आत्मा ही पुरुष है और वह पुरुष चाहे एकेंद्रिय में हो, चाहे द्विइन्द्रिय में हो, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि में हो, परंतु उस चैतन्य आत्मा में कोई फर्क नहीं हैं लेकिन निश्चय नय से कह रहे हैं कि वह आत्मा स्पर्श, गंध, रस, वर्ण से रहित है, ये सब पुद्गल के धर्म हैं, मेरी आत्मा के धर्म नहीं हैं - Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy