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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 47 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 उतना ही कहना जितना सर्वज्ञ की वाणी में स्पष्ट कथन हैं यदि आगम में आपको पढ़ने को नहीं मिले तो अपना चिंतन प्रवेश मत करा देनां क्योंकि अपने चिंतन में ही विसंवाद होता है, तत्व चिंतन/तत्वज्ञान में कही विसवांद नहीं हैं जहाँ हम सोचते हैं कि मैं भी कुछ हूँ , वहीं आप सब कुछ बिगाड़ कर लेते हों जिस दिन आप अपने आपको कुछ भी मत मानो, उसी दिन आप सब कुछ बन जाओगे और जब तक कुछ मानते रहोगे तब तक तुम कुछ भी नहीं बन पाओगें इसलिए वस्तु स्वरूप कह रहा हैकि नय में खींचोगे तो द्वेष होगा, नय से चिपकोगे तो राग होगां संसारी जीव राग-द्वेषरूपी दो लंबी रस्सी के द्वारा कर्म को बांधता है, ग्रहण करता है और अज्ञान से संसार-समुद्र में चिरकाल तक भ्रमण करता हैं अहो! आज प्रतिज्ञा कर लेना कि मुझे निश्चय से द्वेष नहीं, मुझे व्यवहार से राग नहीं, मुझे व्यवहार से द्वेष नहीं और निश्चय से राग नहीं निश्चय व व्यवहार यह दोनों नय हैं, ये रागद्वेष को छोड़ने के मार्ग हैं परंतु इनमें ही राग-द्वेष कर लिया तो, फिर मार्ग तेरा क्या बनेगा ? विष को उतारने के लिये अमृत का सेवन किया और जब अमृत ही विष बनने लग गया तो, भो ज्ञानी ! विष कैसे उतरेगा? एकांत दृष्टि को शमन करने के लिए निश्चय व व्यवहार दो नेत्र हैं दोनों नेत्रों को सुरक्षित रखना एक के अभाव में दूसरे का कार्य नहीं चल सकता हैं इसलिए दोनों को ही समझ कर माध्यस्थ हो जाओं यह हमारे जिनागम को समझने की दो शैलियाँ हैं, वस्तु स्वरूप समझने की व्यवस्था हैं भो ज्ञानी! प्रत्येक जीवद्रव्य ज्ञान-दर्शन सत्ता से समन्वित हैं प्रत्येक जीवद्रव्य सिद्ध-सत्ता से समन्वित हैं जब तू रागभाव से प्रेरित हो उस समय तू अपने आप में सोच लेना, अहो! धिक्कार हो मेरे विकारी भाव कों देखा गया है कि सुई की नोंक के बराबर एक आलू के अंश में द्रव्य-प्रमाण उतने निगोदिया जीव के शरीर विराजमान हैं जितने अतीत में सिद्ध हो चुके हैं भो ज्ञानी! उन सिद्ध भगवंतों को छोंक लगा कर तू खा गया, और कहता है कि मैं भगवान्- आत्मा हूँ इतना "समयसार" में नहीं समझ सके तो तुमने "समयसार" को समझा ही नहीं हैं अब समझना, मेरी रसना इंद्रिय को धिक्कार हो, मैं जान रहा हूँ कि कंद में सिद्धत्व-सत्ता से युक्त जीव विराजमान है, फिर भी उसका सेवन कर रहा हूँ भो ज्ञानी! जीवत्व सत्ता सबकी एक हैं अतः, जैनदर्शन को स्वीकार करके जीना नहीं सीख पाये तो कहीं भी जी नहीं सकोगें यह दर्शन जीना मात्र नहीं कहता है, वरन यह दर्शन कहता है-"जियो और जीने दो" यदि जीना तुम्हारा अधिकार है तो, जीने देना तुम्हारा कर्त्तव्य भी तो हैं घर में मक्खी-मच्छर घूम रहे हैं और आपने औषधि छिड़क दिये तो आपने कौन सा काम किया है? एक श्रावक कह रहे थे-महाराजश्री! मैं चारपाई पर चारों प्रकार के आहार और पाँचों पापों का त्याग करके सोता हूँ, और उधर कछुआ छाप अगरबत्ती लगाकर सोता हैं बताओ, तू क्या करके सोया है? अहो! हिंसक परिणाम करके तू पहले ही सोया हैं भो चेतन आत्माओ! पर्याय पर ध्यान रखना, परिणामों पर ध्यान रखनां अब तो आप लोग हिंसक उपकरण का उपयोग करेंगे ही नहीं? यदि "पुरुषार्थसिद्धियुपाय" सुनने की पात्रता रख रहे हो तो Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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