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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 459 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 आज से प्रायश्चित्त यही देंगे, आलोचना यही सुनेंग आदेश भी यही देंगे और अब में संघ से प्रस्थान कर रहा हूँ स्वामिन, स्वामिन ! ऐसा मत करों आपने मुझे जीवन दिया है, संयम दिया हैं ज्ञान दिया, मुझे सेवा का मौका तो दों आचार्य कहते हैं- भो भव्यात्मन्! हमने आपको मोक्ष मार्ग पर चलने की दीक्षा दी है, अपनी सेवा के लिए दीक्षा नहीं दी हैं यह होती है निर्मल दृष्टि ! शिष्य का सेवा करना धर्म हैं पर आचार्य को सेवा नहीं चाहना ही धर्म है और शिष्य का विनय करना ही धर्म हैं बारह वर्ष की यह भक्त - प्रत्याख्यान विधि अभी प्रारंभ नहीं कर रहे, संस्तर पर आरूढ़ नहीं हुएं अब जाकर विभिन्न संघों में विचरण करेंगे और वहाँ जाकर यह देखेंगे कि यहाँ का समाचारी किस प्रकार का हैं भगवती आराधना में लिखा है-छोटे मुनिराज, छुल्लक, एलक, ब्रह्मचारी आदि को राग बढेगा, मेरे वियोग में रोयेंगें सबसे बड़ा विकल्प था कि हम जिसका निर्देश देते थे, आज वे ही मुझे निर्देशन दे रहे हैं यह अहम् - भाव यदि मन में आ गया, तो सल्लेखना बिगड़ जायेगीं जिनके प्रति विशेष अनुराग था, एकांत में शिकायत लेकर पहुँच जायेगा, तो उनके भाव बिगड़ेंगें मैं यदि ज्येष्ठ बनकर रहूँगा तो वह नवीन शिष्य यह कहेंगे कि मेरे पूर्व आचार्य ऐसा नहीं करेंगे तो मैं ऐसा क्यों करूँ? ऐसा करके, समझा करके, कुछ भी हो, सजल नेत्रों को छोड़कर एक अथवा दो मुनिराज को साथ लेकर निर्यापकाचार्य की खोज में जाते हैं स्वात्मा की प्रभावना के लिए जाते हैं? सब साधु देखते रहते हैं आगम में परगण की चर्चा सामान्य मुनि के लिए नहीं हैं आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणधर इन सबके लिए हैं इन सबको गण छोड़ना पड़ेगा, यह राजमार्ग है, पद भी छोड़ना पड़ेगा, गणधर भाव भी छोड़ना पड़ेगां गण छूटना तो सहज हो जाता है, पर मनीषियो ! गणधर भाव का छोड़ना बड़ा कठिन होता हैं यहाँ मेरा निर्वाह होगा कि नहीं? अब निर्यापकाचार्य की खोज के साथ-साथ क्षेत्र की भी खोज करेंगें जिस क्षेत्र में अति उष्णता हो, उस क्षेत्र में संल्लेखना धारण न करें जिस क्षेत्र में अति शीत का प्रकोप हो, उस क्षेत्र में समाधि के लिए स्थापित न हों समशीतोष्ण स्थान जहाँ पर हो, वहाँ संल्लेखना का स्थान निश्चित किया जायें मुनिराज जब विहार करते हैं सहज रूप में, उसमें दो तीन हेतु हैं पहला हेतु समाजों का ज्ञान हो जाता है कि यहाँ की समाज कैसी है? और वहाँ अंतिम समय का निर्णय करते रहते हैं कि किस समाज में सल्लेखना होती हैं यदि शासक विधर्मी है, तो उस नगर में सल्लेखना स्वीकार नहीं की जायेगीं ये भी निर्यापकाचार्य के संघ में जब पहुँचते है तो, ध्यान रखो, श्रावक तो विधिपूर्वक उनकी चर्या करेगा संघ में जाएँगे, तीन दिन तक एक दूसरे की चर्या देखेंगें सल्लेखना के लिए स्वीकृति एकाएक नहीं दी जायेगीं जो निर्यापकाचार्य होंगे वे भी उनकी चर्या को देखेंगें लघुशंका से लेकर विश्राम तक सब चर्या देखी जायेगीं यदि समझ रहे हैं कि इनके अंदर भावना निर्मल है, सल्लेखना चाहते हैं, तो चौथे दिन आचार्य महाराज उनको संघ में रहने की स्वीकृति देंगे, अन्यथा उनसे कह देंगे कि आप विहार कर सकते हों तीन दिन तक यदि परीक्षा नहीं हो पाती और Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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