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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 460 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 संभावना दिखती है, तो ज्यादा लंबे समय तक परीक्षा चल सकती हैं वे आचार्य पूरे संघ से मंत्रणा करेंगें क्योंकि अकेले आचार्य महाराज के दम पर समाधि नहीं होती हैं सबसे पूछेगे कि क्या इनको संघ में स्थान दिया जाये? सभी साधु इनको स्वीकृति दे देंगे कि हम सभी सेवा/ वैयावृत्ति करेंगें तब ही उन्हें संघ में प्रवेश की अनुमति मिलेगी वैयावृत्ति के अभाव में सल्लेखना संभव नहीं हैं वैयावृत्ति बहुत बड़ा तप हैं स्वयं के संयम की साधना व रक्षा और दूसरे के संयम की साधनां भो भव्यात्मा! प्रथम चार वर्ष तक क्रम से अनाज का त्याग करते हैं पूरा भोजन नहीं छोड़ देनां फिर रसों का त्याग करते हैं और जब आठ वर्ष बीत गये, अंतिम चार वर्ष बचे तो इसमें उपवास की वृद्धि करते हैं अंतिम जो वर्ष होगा, उस वर्ष में गहनतम् अनशन तप करते हैं ऐसे तपस्या को बढ़ाते हैं वे वीतरागी मुनिराजं अब क्षपक का अंतिम जो वर्ष चल रहा है उस वर्ष में साधना को और बढ़ायेंगे, कभी अनशन, कभी ऊनोदरं कुछ समय बाद घृत आदि रसों का त्याग कर केवल छाछ लियां जब देखा कि अब छाछ भी लेने की सामर्थ नहीं है, तो उष्ण जल चल रहा हैं यह सब क्रमिक है, एका एक नहीं छूटतां वह एक अंतिम दिन आता है जब शरीर शिथिल हो चुका हैं उत्मात प्रतिक्रमण होता है, जीवन का अंतिम प्रतिक्रमण है, सात प्रतिक्रमण में अंतिम प्रतिक्रमणं पूरे संघ के पास अब क्षमा माँगने कैसे जायें अंतिम समय में पिच्छी ला दी क्षपकराज की भो ज्ञानी आत्माओ! एक मुनिराज की समाधि में सहायक अड़तालीस मुनिराज की चर्चा अपन करेंगे भो ज्ञानी! ध्यान रखना, एक मुनि के द्वारा कभी सल्लेखना नहीं होती, कम से कम दो मुनि चाहिएं एक-एक मुनि के पास उनकी पिच्छी रखी जायेगी और कहेंगे-देखो! आपके जीवन में कहीं हमारे क्षपकराज के द्वारा क्लेश पहुँचा हो, तो आज अपने हृदय से क्षमा कर देनां वे मुनिराज अपनी पिच्छी उठाकर क्षमा करेंगे और उनसे जाकर निवेदन करेंगे कि आप विकल्प नहीं करो, संपूर्ण संघ के साधुओं की आपके प्रति निर्मल भावना हैं पंचमकाल में, मनीषियो! चवालीस मुनियों की व्यवस्था का आगम में उल्लेख हैं "आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी" कह रहे हैं-यह समाधि, समाधि है; अकाल-मरण नहीं हैं समाधि 'आत्मघात' नहीं, समाधि 'सतीप्रथा' नहीं हैं मनीषियो! शरीर और कषाय को कुश करने का नाम समाधि हैं आयकर्म के पूर्ण होने पर बचेगा तो इसलिए पंचपरमेष्ठी की आराधना करते हुए निर्मल भाव से प्राणों का विसर्जन करना, हंस आत्मा को परमहंस बनाकर ले जाना, इसका नाम समाधि हैं ध्यान रखना, शरीर को तो सुखा डाला परन्तु कषाय नहीं सूखी, तो समाधि नहीं होगी रागवश या द्वेषवश विष आदि खा लेना, फाँसी लगा लेना, उसे कहते हैं-आत्मघातं इसमें फाँसी नहीं लगाई जाती, अग्नि में नहीं कूदा जाता, वरन् निर्मल भाव से आयु पूर्ण की जाती हैं अपने आत्म-परिणामों को निर्मल करने की प्रवृत्ति का नाम सल्लेखना हैं इस प्रकार "दिन-रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊँ; देहांत के समय में तुमको ना भूल जाऊँ" मनीषियो! इस सूत्र को रटते रहना आज से ही Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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