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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 458 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 नहीं चल सकेगीं अनुशासन बहुत अनिवार्य हैं जब एक गुरु अपने शिष्य को 'आचार्य' शब्द से संबोधित कर स्वयं नीचे बैठकर नमस्कार करते हैं. –हे आचार्य भगवन्! आपको नमोस्तुं इसमें बहुत बड़ा रहस्य हैं जब मैं नमोस्तु कर रहा हूँ तो मेरे चेले तो अपने आप नमोस्तु करेंगें क्योंकि आचार्य पद तो दिया और तुम समर्पण नहीं दिला पाए, तो आपको आचार्य पद देना या न देना समान थां आपको याद है जब राम जंगल में गयें न भी जाते तो काम चल सकता था कारण यह था कि यदि मैं यहाँ रहूँगा, तो ज्येष्ठ के सामने लघु को कोई स्वीकार नहीं करेगा इसलिए राम अयोध्या छोड़कर चले गये, जिससे कि भरत को सब राजा स्वीकार करें यह सत्य था कि राम वहाँ रहते गद्दी पर भले भरत बैठे रहते, लेकिन लोगों की श्रद्धा तो राम पर थीं सम्मान सम्राट का नहीं होता, सम्मान श्रद्धावान का होता हैं। भो प्रज्ञात्मा! आचार्य परमेष्ठी आचार्य पद देने के बाद पुनः संघ में विराजते हैं नवीन आचार्य के साथ बैठकर अब गण को संबोधित करते हैं और गण के पहले गणी (नवीन आचार्य ) से कहते हैं- अभी तक आप गुरु की छाया में रहे हो, परन्तु अब आप गुरु छाया में नहीं, वरन् गुरु पद पर आसीन हों गुरु पद को गुरू बनाकर चलनां गुरु पद पर पहुँचकर लघु तो बन जाना, पर पद को लघु मत बना देनां नमोस्तु शासन का रक्षण ऐसे करना जैसे तुम अपनी देह का रक्षण करते हों तुम कष्ट सहन कर लेना, पीड़ाएं सहन कर लेना, लेकिन केशरिया ध्वज को कभी नीचे नहीं आने देनां आचार्य का पद मुनि के पद से बहुत कुछ भिन्न हैं मुनि सुकल्याण में ही तल्लीन रहता हैं मुनि बड़ा निर्मल स्वभाव हैं पर आचार्य को संघ की ही नहीं पूरे जैनशासन की चिंता होती हैं समाज की भी चिंता आचार्य को होती है; समाज हमारी बिखर जायेगी, समाज नहीं बचेगी तो अहो! मुनियों की चर्या कहाँ चलेगी? आचार्यो के आठ विशेष गुण मुनियों से, अलग से होते हैं उनमें एक दूरदर्शी नाम का गुण भी होता हैं अन्यथा मत समझनां सम्यम्दृष्टि धर्मात्मा बालक भो आयतन है क्योंकि देव, शास्त्र, गुरु और उनके भक्त कहलाते हैं आयतनं यदि आपने आयतन का अविनय किया है तो सम्यक्त्व की विराधना की हैं देव, शास्त्र, गुरु से श्रद्धान हट जाए तो यह मिथ्यात्व में चला जाएं शिष्य माला के मणि जैसे एक धागे में पिरोये होते हैं वे खिसक न जाएँ इसलिए तीन मणि ऊपर दिये जाते हैं जैसे माला के मणि एक सूत्र में हैं भिन्न होकर भी अभिन्न दिख रहे हैं, फिर भी भिन्न हैं अहो गणी! तुम समाज को सम्हालना तो भिन्न-भिन्न को अभिन्न करके देखना, फिर भी तुम अपने स्वभाव में भिन्न ही रहना उसको मत खो देना संघ के गुरु तो एक हैं, पर गुरु के संग में तो अनेक हैं संघ में रहना समाधि का घातक नहीं है, पर संग बनाकर रहना समाधि का नियम से घातक हैं संघ में जहाँ 'ग' लग गया, वहाँ परिग्रह हो गयां जहां 'घ' है, वह चतुर्विध संघ हैं साधुओं की ओर दृष्टिपात कर कहते हैं - आप सभी इन आचार्य महाराज की आज्ञा में चलेंगें Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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