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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 429 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 एक भैया जी 'श्रेयान्सगिरि गयें भेदविज्ञान की दृष्टि को समझनां ब्रह्मचारी जी कह रहे थे- सामग्री बाहर से मँगाने के बाद अपने हाथ से पिसे आटे की रोटी बनाईं (यहाँ तक तो सामान्य बातें थीं) रोटी बनाने के उपरान्त थाली लगा ली, लेकिन ज्यों ही ग्रास तोड़ा तो उस ग्रास में बाल आ गयां अब बताइये आप क्या करोगे? कब से बन रहा था पूजन करने के बाद गेहूँ पीसा, पीसने के बाद भोजन निर्मित किया, उसके बाद उसमें बाल निकल आया, यहाँ तेरा भेद-विज्ञान प्रबल होगा तो क्या कहेगा ? ओहो! भोजन बनाया जा सकता है, थाली परोसी जा सकती है, ग्रास तोड़ा जा सकता है पर, भो ज्ञानी! मुख में तभी प्रवेश होगा जब लाभ अन्तराय कर्म का क्षयोपशम होगां इसीलिए भूल जाना इस बात को कि मैं सबका कर्त्ता हूँ , मैं सबको खिलाने वाला हूँ तुम अंजली पर रख सकते हो, परन्तु किसी के पेट में नहीं रख सकतें अब यहाँ पकड़ना भेद-विज्ञान की दृष्टि को, ऐसे काल में पूरी की पूरी थाली छोड़ देना, इसका नाम है भेद-विज्ञानं ऐसे काल में और गहरी बात करों एक बाल्टी घृत आपके घर में आया, एक चींटी निकल आई जबकि दो-इन्द्रिय से माँस संज्ञा शुरू हो जाती हैं अहो मुमुक्षु आत्माओ! अब इस घृत का क्या करोगे ? घी कोई बहुत बड़ी बात नहीं हैं लेकिन आज के युग में आपके संयम की परीक्षा चल रही हैं यहाँ मालूम चलेगा कि मेरा राग कितना कम हुआ हैं अपने-अपने हृदय से पूछना कि क्या हालत हो रही है? और फिर सोले का मँगाया हो, बड़े पुरुषार्थ से आया, उसी समय कोई बाल निकल आयां अहो! ज्ञानी आत्मा! मल था कि नहीं ? और ऐसे द्रव्य का उपयोग आपने पात्र को देने में किया तो पुण्य का आस्रव होगा कि पाप का आस्रव होगा? भो ज्ञानी! आप बोल रहे थे कि, महाराजश्री! मन शद्धि! वचन शद्धि! काय शद्धि! अहो! परिणामों में जरा भी विकार आया कि भाव-शुद्धि गईं जितने अंश में भाव-शुद्धि थी उतने अंश में कर्म-निर्जरा हो रही थी, और पुण्य-आस्रव हो रहा था, लेकिन एक क्षण-मात्र में भाव-शुद्धि में विकल्प आया कि तत्क्षण पाप-आस्रव जारी होगां द्विदल खाने वाली आत्माओ! हम कैसे कहें कि तुमको विरक्ति-भाव है? देखो, किसी को निहारना मत, अपने आप को निहारना कि हम निज के साथ छल कर रहे कि नहीं? बाजार के द्रव्यों को खाने वाला जैनदर्शन के अनुसार श्रावक नहीं हैं अहो ज्ञानी आत्माओ! दूध को अड़तालीस मिनट के अन्दर तपना चाहिए था, आते-आते एक घण्टा बीत चुका, तो वह दूध तुम्हारे पीने योग्य बचा कहाँ? छानना चाहिए वस्त्र में वस्त्र ऐसा नहीं हो कि पिताजी की धोती फट गई थी तो उसका छन्ना बना लियां माँ की साड़ी तक का उपयोग तुम ऐसे काम में कर लेते हो, जिसमें सम्मूर्च्छन मनुष्य जन्मे थे, मरे थे, पसीना जिसमें सूखा थां पानी छान के पीना था, तुरन्त रूमाल निकाला और पानी छान लियां अरे! धिक्कार हों उस पानी में तो जीव थे ही, पर उस रूमाल से तूने नाक पोंछी, पसीना पोंछा और पानी छान लियां कहते हैं-महाराज! हम पानी छान के पीते हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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