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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 428 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 मनीषियो! भगवान् बनना है तो भगवत्ता की प्राप्ति के उपाय को समझना होगां जब तक आपके अन्तरंग में वीतरागता के प्रति श्रद्धान नहीं है, वीतरागता का ज्ञान नही हैं और वीतरागता की प्राप्ति के उपाय का संयम नहीं है, तब तक भगवान बनना असम्भव हैं राग के सद्भाव में वीतरागता का उद्भव नहीं होता जिस तरह ऊसर भूमि में कभी बीज अंकुरित नहीं होता, उसी तरह असंयम भाव में वीतरागता का उद्भव सम्भव नहीं जहाँ भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक नहीं, ग्राह्य-अग्राह्य का विवेक नहीं, हेय-उपादेय का विवेक नहीं भो ज्ञानी! वहाँ आपा-पर का भेद-विज्ञान सम्भव नहीं हैं कुंदकुंद स्वामी 'चारित्रपाहुड' में कह रहे हैं-जब तक तेरे जीवन में सप्त व्यसन और अभक्ष्य का त्याग नहीं है, तब तक सम्यकत्वाचरण-चारित्र नहीं है, संयमाचरण नहीं है और स्वरूपाचरण भी नहीं हैं जीव जिस पर्याय में पहुँच जाता है, वह उसी पर्याय में रमण करने लगता है और सोचता है कि मेरा जीवन ही सर्वश्रेष्ठ हैं "इष्टोपदेश" ग्रंथ में पूज्यपाद स्वामी लिख रहे हैं- एक अखण्ड' शुद्ध द्रव्य आत्मदशा में लवलीन योगी जब निजस्वरूप में रमण करता है तो अन्यत्र जाने का उसका मन नहीं करता और एक भोगी द्रव्य भोग-पर्याय में जब लीन हो जाता है तो भगवत्ता की पर्याय का उसे ज्ञान ही नहीं रहता हैं भोगों की भी अतुल महिमा हैं इन्द्रिय-सुखों ने अनन्त संसार में तुझे निवास करने का मौका दिया हैं उनके साथ तू जी रहा है, मर भी रहा है, फिर भी मर नहीं रहा हैं तेरी वासनाओं का मरण हो गया होता, तेरी कामनाओं का मरण हो गया होता, तो भी जन्म-मरण संसार में नहीं होतां जिया तो है, मरण तो किया है, लेकिन संसार की पर्यायों में नष्ट हो गया हैं वहीं रति को प्राप्त हो जाता हैं विष्टा का कीड़ा भी अन्दर ही प्रवेश कर रहा है, लेकिन मरना पसंद नहीं करता हैं यह राग की दशा हैं कितनी पारिवारिक यातनाओं में आप जी रहे हों भो ज्ञानी! जीव को भान ही नहीं हो पा रहा कि मैं मनुष्य हूँ मनुष्य का भान तो उसे है जो मानवता के साथ बैठा हो, जो मृदु-भाव से बैठा हों मक्खन खाने से मनुष्य नहीं बनोगे, मक्खन-जैसे मुलायम हो जाओगे तो मनुष्य बन जाओगें इसीलिए ध्यान रखना जीवन में, तनिक से घृत की चर्चा की थी, तो मन में विकल्प आ गये थे कि, क्या भोजन फेकूँ? मुझको भी महसूस हो गया कि इतना भोजन कैसे फे? अरे! दृष्टि डालो कि मेरा राग कितना हैं एक जीव वह है जो कोटि अठारह घोड़े और विशाल सम्पत्ति को तिनके के समान छोड़कर चला गया और हमसे एक दिन का भोजन नहीं छूट पातां जब तक तुम परद्रव्य व निजद्रव्य पर दृष्टि नहीं डालोगे, तब तक पता ही नहीं चलेगा कि मैं भेद विज्ञानी हूँ नहीं महसूस करो कि हाथ में दग्ध का गिलास है, मुख की ओर जा रहा था, कि उसी बीच एक जीव आकर गिर गयां यहाँ तुम्हारा भेद विज्ञान झलकेगा कि जीव को निकाल कर दुग्ध पीते हो या गिलास को अलग करते हों Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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