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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 408 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 सूत्र है यह कर्त्ताभावं जिसके आप कर्ता हो, उसको आप सब-कुछ मानते हो और जिसके आप कर्ता नहीं हो, उसे आप तुच्छ मानते हो; जबकि मुमुक्षु की दृष्टि में सभी तुच्छ ही हैं किसी भवन पर आपने एक ईंट रख दी तो उसमें भी अंह-भाव आता है, हृदय ईंट का बन जाता हैं जब तुम्हारी ईंट नहीं थी, तो विनयपूर्वक आप आते थे, उस तीर्थ की वंदना करते थे; तब भावना कुछ ज्यादा निर्मल होती थी और सराहना करते थे कि धन्य हो उसको, जिसने इस भवन को निर्मित किया है, उसी के कारण यहाँ बैठकर मैं धर्म साधना तो कर रहा हूँ वह भावना अब मर चुकी है, क्योंकि इंट मेरी रखी गई हैं इसलिए तीर्थों में गुप्तदान देना उचित लगता है, जिससे मालूम नहीं चलता कि ईंट किसकी लगी हैं हम तीर्थ भूमि में सामायिक करने गए थे, लेकिन वहाँ भी सामायिक नहीं हो पाई, क्योंकि हमने इंट रख दी हैं यदि किसी ने उस भवन में किसी त्यागी को विराजमान कर दिया तो आपकी त्यागी के सामने (पास) पहुँचने की ताकत तो है नहीं, पर मैनेजर को जरूर डाँट देते हो कि जब आपको मालूम था कि मैं यहाँ ठहरूँगा तो आप महाराजश्री को कोई दूसरा कमरा खोल देतें यानि परमेष्ठी के प्रति भी अनादर भाव आ गए, क्योंकि ईंट रखी थीं मनीषियो! ऐसी इंट मत रखना जिससे कि संसार के नींव की ईंट बनना पड़ें भो ज्ञानी! ईंट रखने का भाव दूसरा था- कि यदि मैंने ईंट रखी है तो मेरी संतति भी यहाँ आकर धर्म से जुड़ी रहें लोग भी कहें कि तुम्हारे दादा ने ईंट रखी है, इसलिए आप भी धर्म से जुड़े रहों अतः, उद्देश्य यही होना चाहिए था कि हमारे बुजुगों ने इतना विशाल मंदिर बनवाया है तो हम कम से कम पूजा ही करते रहें इस भावना के लिए इंट रख देना, लेकिन हृदय को ईंट बनाने के लिए कभी इंट रखने का विचार मन में नहीं लानां अहो! 'इदम्' कह रहा है कि मैं ऐसा हूँ, मेरा ऐसा हैं यही 'मैं' विनाशक हैं यह दो दृष्टियाँ हैं एक दृष्टि तो यह बने कि देखो, हमारे दादाजी ने तो क्षेत्र में कमरा बनवाया, मेरी सामर्थ्य तो धर्मशाला बनवाने की है ताकि यात्री ठहरें दूसरी दृष्टि में लगता है कि यहाँ मेरा नाम लिखा देना चाहिए, ताकि मालूम चल जाए कि इनके बुजुर्गों ने ऐसा पुण्य का काम किया हैं अहो! कहीं ऐसे भाव आ गए कि यह हमारे परिवार का जिनालय है, हमारे परिवार की धर्मशाला है, इसमें आपको कोई अधिकार नहीं है, यहाँ से चलो, तो नाम कभी नहीं लिखानां इसलिए हमारे बुजुर्गों ने मंदिर बनवाकर समाज को सौंपने के पहले व्यवस्था हेतु एक बहुत बड़ी भूमि (जायदाद) भी लगा दी, क्योंकि पता नहीं यह लोग पूजा भी करेंगे कि नहीं भो ज्ञानी! एक को तो आल्हाद आ रहा है-अहो! 'मेरा सौभाग्य, मैं ऐसे कुल में जन्मा जिस कुल में ऐसे जिनालय निर्मित किए गए हों मैं उस वंश का बीज हूँ, जिस वंश में जिनेन्द्र के मंदिर बनवाए गए थें अब तुम जिनालय की रक्षा नहीं, जिनालय में जरूर आ जाना, क्योंकि जब तक जिनालय में रहोगे तब तक पाँच पापों से तेरी रक्षा होती रहेगी और जब तक तू यहाँ रहेगा तब तक जिनालय को नष्ट करने वाले भाव स्वयं भाग जाएँगें मनीषियो! पवित्र भाव आना ही पुण्य भाव हैं, क्योंकि पाप की तीव्रता में पुण्य भाव आ नहीं पाते; कर्ता Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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