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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 409 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भाव आ जाता हैं भो चैतन्य! ध्यान रखना कि कभी-कभी साधना करते-करते भी कर्म बंध हो जाता है और साधना न करते अथवा साधना की भावना करने मात्र से कर्म की हानि हो जाती हैं एक जीव साधना में भी कर्तृत्व भाव लिए बैठा है और एक जीव साधना को करते हुए कह रहा है कि मैं क्या कर सकता हूँ? देखो, कैसी निर्मल दशा हैं इसलिए कह दिया कि मन-वचन-काय को गुप्त कर लों यदि आप साधना करना चाहते हो तो संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को रोक लो और अपने आप को छुपा लों भो ज्ञानी! एक मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी भी यदि उत्कृष्ट साधना करता है तो वह उत्कृष्ट भोग पाता हैं नागसेन आचार्य ने "तत्त्वानुशासन" ग्रंथ में लिखा है-अहो मुमुक्षु! यह संयम-साधना, ध्यान-आराधना चरम शरीरी के लिए मुक्ति और अचरम शरीरी के लिए भुक्ति प्रदान करती हैं परंतु साधना विफल नहीं जातीं मोक्षमार्ग की आराधना चरम शरीरी करेगा तो नियम से उसको तो मोक्ष होना ही है, लेकिन अचरम शरीरी की आराधना भी विफल नहीं जाती है, उसको संसार के भुक्ति की प्राप्ति होती हैं लेकिन भुक्ति की प्राप्ति के लिए साधना मत करनां यद्यपि तुम भोगों में लिप्त हो, तो भी तुम मोक्षमार्ग की साधना करते रहना, क्योंकि जितना है उतना तो तुम्हारे हाथ में रहेगा, अन्यथा मूल से भी चले जाओगें कम से कम इतना संयम तो कर लेना कि पुनः इसी पर्याय में आ जाएँ, अन्यथा बनिया के बेटे भी कहाँ बचे तुमं संयमी होकर भी तुम्हारी स्वभाव दृष्टि नहीं बन पा रही है, क्योंकि राग तुम्हारे अंदर है, परंतु द्वेष तो मत करों अहो! जब द्वेष छूट जाएगा तो निश्चित है कि राग मंद पड़ेगा और जैसे ही राग मंद पड़ेगा तो वीतराग भाव का ज्ञान हो जाएगां वीतराग भाव का ज्ञान हुआ कि वीतराग मार्ग पर चलना प्रारंभ हो जाएगां इसलिए राग नहीं, द्वेष को छोड़ों हमारे आगम में राग के तो दो भेद किये हैं (प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग) किये हैं, पर द्वेष के दो भेद नहीं किएं भो ज्ञानी! द्वेष जब भी होगा अप्रशस्त ही होगां राग तो प्रशस्त हो सकता है, लेकिन द्वेष अप्रशस्त ही होगा, और जहाँ द्वेष है वहाँ नियम से अप्रशस्त राग हैं मैंने स्वयं अनुभव करके देखा है कि द्वेष तभी आता है जब हम कहीं किसी से जुड़ जाते हैं एक परिवार में दूसरे पुत्र ने जन्म लिया तो बड़े भइया की विडम्बना प्रारंभ हो गईं उसी दिन से माँ का दुलार भी बँट गया और पिता का दुलार भी बँट गयां लेकिन ध्यान रखना, उन्हें तो दूसरा बेटा मिल गया, पर बेटे को दूसरे माता-पिता नहीं मिलें माँ दूसरी दृष्टि से देखना प्रारंभ कर देती है, पर बेटा दूसरी दृष्टि से नहीं देखता हैं वह उतना ही ज्यादा गोदी में चिपकता है, पर माँ उसको पटकना प्रारंभ कर देती हैं यहाँ से द्वेष प्रारंभ हो जाता हैं व्यवहारिक दृष्टि से देखते हैं, तो जब प्रथम पुत्र पैदा होता है तो आप उसको कुछ ज्यादा ही दुलार देते हो और जिसको एक बार ज्यादा दुलार मिल गया हो, कालांतर में उसे तुम बाँटोगे तो बेटे को फीका लगता हैं अहो मनीषियो! पर्याय के परिणमन को लेकर परिणामों का परिणमन विकृत मत कर लेना, क्योंकि संबंध शाश्वत नहीं हैं किसी के जीते-जी विच्छिन्न हो Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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