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________________ क्षीण अंग का ज्ञान था। स्वप्न के परिणाम स्वरूप अपनी आयु के साथ श्रुत का विच्छेद जानकर आपने दक्षिण देश से वेणाट तटपुर नामक स्थान से मुनिसंघ में से दो मुनियों के पहुंचने पर उनकी परीक्षा हेतु उनको दो मंत्र सिद्ध करने के लिये दिये। मंत्रों को सिद्ध करने पर एक मुनिराज को कानी और दूसरे मुनिराज को दाँत बाहर निकली देवी दिखाई दी। तब उन्होंने विचार किया कि देवियाँ तो कुरूप होती नहीं। इसलिये मंत्रों में कुछ कमी है। उन्होंने मंत्रों को ठीक किया और आचार्य धरसेन महाराज को सुनाया। इस प्रकार धरसेन आचार्य को विश्वास हो गया कि शिष्य ज्ञानी हैं तो उन्हें शिक्षा देना प्रारंभ की। दोनों मुनिराजों ने शिक्षा प्राप्त करके श्रुत को लिपिबद्ध करना शुरू किया, जो ज्येष्ठ सुदी पंचमी को पूर्ण हुआ। तभी से श्रुतपंचमी पर्व मनाया जाने लगा। श्रुत का नाम 'षट् खण्डागम' रखा गया, जिसको प्रथम श्रुतस्कन्ध कहा गया। आचार्य भद्रबाहु के शिष्य गुप्तिगुप्त, गुप्तिगुप्त के शिष्य माघनन्दि, माघनन्दि के शिष्य जिनचन्द्र आचार्य और आचार्य जिनचन्द्र के शिष्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी हुए, जिन्होंने 80 से अधिक ग्रंथों की रचना की। उनके बाद आज तक आचार्यपरम्परा से ग्रंथों की रचना हो रही है, जो जीवों के कल्याण में निमित्त बनते हैं। गुरुमहाराज द्वारा दी गई शिक्षा संसार से पार लगानेवाली होती है। उनके द्वारा कही गई बात का प्रभाव भी पड़ता है। क्योंकि आचरण के द्वारा दी गई शिक्षा प्रभावशाली होती है। गुरुमहाराज अपने व्रतों का निर्दोष पालन करते हैं, रत्नत्रय की आराधना करते हैं, इसलिये उनके निर्मल आचरण से सभी को सहज रूप में ज्ञान मिलता रहता है। गुरु की ऐसी महिमा होती है कि उनकी अनुपस्थिति में भी कोई शिष्य उनका स्मरण करके श्रद्धा और विनय भाव से सम्यज्ञान की साधना कर लेता है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचर्य की अनुपस्थिति में भी धनुर्विद्या सीख ली थी। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा-भक्ति सम्यग्दर्शन का प्रधान कारण है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये तीसरा कार्य है जिनवाणी का स्वाध्याय करना। जिनवाणी का स्वाध्याय करने से विषय-भोगों से उदासीनता आती है, धर्म में अनुराग बढ़ता है, संसार से भय और शरीर से वैराग्य होता है, तत्त्वज्ञान 0_960
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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