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________________ गुणों से युक्त और पंचपरमेष्ठी का भक्त होता है । यदि हमने अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन नहीं किया और विषय - कषाय में ही फँसे रहे, तो अनन्तकाल तक दुःखों के सागर इस जन्म-मरणरूप संसार में ही भटकना पड़ेगा। 'रयणसार' ग्रंथ में आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने अशुभ और शुभ भावों के कारणों को बताते हुये लिखा है हिंसादीसु कोहादिसु, मिच्छाणाणेसु पक्खवाएसु । मच्छरिदेसु मदेसु दुरहिणिवेसेसु असुह-लेस्सेसु । ।58 । । विकहादिसु रूदृट्ठज्झाणेसु असुयगेसु दंडेसु । सल्लेसु गारवेसु य, जो वट्टदि असुहभावोसो | 159 || हिंसादि पापों, क्रोधादि कषायों, मिथ्याज्ञान, पक्षपात, मात्सर्य, मदों, दुरभिनिवेशों, अशुभ लेश्याओं, विकथाओं, आर्त्त - रौद्र ध्यानों, ईर्ष्या, असंयमों, शल्यों और मानबढ़ाई में जो वर्तन होता है, वह अशुभ भाव है । दव्वत्थिकाय छप्पण, तच्च - पयत्थेसु सत्त - णवगेसु । बंधण - मोक्खे तक्कारणरूवे वारसणुवेक्खे | 160 || रयणत्तसयस्सरूवे अज्जाकम्मे दयादि सद्धम्मे । इच्चेव माइगे जो, वृट्टदि सो होदि सुहभावो | |61|| छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, बंध और मोक्ष, उसके (मोक्ष के) कारणस्वरूप बारह अनुप्रेक्षायें, रत्नत्रय स्वरूप, आयुकर्म, दया आदि सद्धर्म इत्यादि में जो वर्तन होता है, वह शुभभाव होता है। इन शुभाशुभ परिणामों का फल बताते हुये आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने 'रयणसार' ग्रंथ लिखा है । सग्ग- सुहमाओ । असुहादो णिरयाऊ, सुहभावादो दु दुह-सुहभावं जाणदु, जं ते रुच्चेद वं कुज्जा । । 57 ।। अशुभ भावों से नरकायु और शुभ भावों से स्वर्गाय मिलती है, अतः दुःख-सुख भावों को जानो और तुम्हें जो अच्छा लगे, उसे करो । आचार्य भगवन्तों ने लिखा है कि 'अरहंते सुह भक्ति सम्मत्तं ।' मोक्षमार्ग की शुरूआत अरहंत भगवान् के प्रति शुभ अनुराग से ही होगी। अरहंत भगवान् ही वस्तुस्वरूप का 78 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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