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________________ कल्याणक की पूजा को प्राप्त होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने 'भाव पाहुड़' ग्रंथ में लिखा हैविसय विरत्तो समणो छद्दसवरकारणाई भाऊण । तित्थयरणामकम्मं बंधई अइरेण कालेन | | 77 || विषयों से विरक्त रहनेवाले जो साधु सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन करते हैं, वे अल्प ही समय में उस तीर्थंकर नाम की प्रकृति का बन्ध करते हैं, जिससे पंचकल्याणकरूप लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं, अनन्तकाल तक अनन्तसुख का अनुभव करते हैं और अनायास ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं । समस्त पापों का क्षय करनेवाली सोलहकारण भावनाओं का बार-बार चिन्तन, मनन, स्मरण करने से परिणामों में उज्ज्वलता आती है, मिथ्यात्व का अभाव होता है, व्रतों में दृढ़ परिणाम बनते हैं । इसलिये श्रवण-पठन करते-करते संसार के बंध को छेदनेवाली इन भावनाओं को निरन्तर भाना चाहिए। हे भव्य जीवो! इस दुर्लभ मनुष्यजन्म में पच्चीस दोषरहित दर्शन-विशुद्धि नाम की भावना भावो। तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन, शंकादि आठ दोष- ये सच्चे श्रद्धान को मलिन करने वाले पच्चीस दोष हैं, इनका दूर से ही त्याग करो ।1 । पाँच प्रकार की विनय, जैसी भगवान् के परमागम में कही है उस प्रकार करना चाहिये । दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय, उपचार विनय— पाँच प्रकार की विनय को भगवान् जिनेन्द्र ने जिनशासन का मूल कहा है। जहाँ पाँच प्रकार की विनय नहीं है, वहाँ जिनेन्द्र के धर्म की प्रवृत्ति ही नहीं है। इसलिये जिनशासन का मूल विनयरूप ही रहना योग्य है। 21 अतिचार रहित शील को पालना चाहिये । शील को मलिन नहीं करना 643 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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