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________________ चरणारविंद के समीप में ही होता है । केवली - श्रुतकेवली की निकटता के बिना तीर्थंकरप्रकृति के बंध के योग्य परिणामों की विशुद्धि नहीं होती है। तीर्थंकर प्रकृतिबंध की कारण ये सोलह भावनायें समस्त पापों का क्षय, भावों की अशुद्धिरूप मल को विध्वंस करनेवाली, श्रवण-पठन करते-करते संसार के बंध को छेदनेवाली हैं, ये निरंतर ही भाने योग्य हैं। जिसके सोलहकारण भावनायें हो जाती हैं, वह नियम से तीर्थंकर होकर संसारसमुद्र से तिर जाता है, ऐसा नियम है। सोलहकारण भावनायें जिसके होती हैं, उसका कुगति गमन नहीं होता है, उसका अधिक-सेअधिक तीसरे भव में निर्वाण होता ही है, अतः ये 'शिव' का कारण हैं। कोई तो विदेहक्षेत्र में गृहस्थपने में सोलहकारण भावना केवली - श्रुतकेवली निकट भाकर उसी भव से देवों द्वारा तपकल्याणक, ज्ञानकल्याणक एवं निर्वाणकल्याणक मनाये जाकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। कोई पूर्वजन्म में केवली - श्रुतकेवली के निकट सोलहकारण भावना भाकर सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के अहमिन्द्रों में उत्पन्न होकर फिर मनुष्य होकर तीर्थंकर होकर, निर्वाण प्राप्त करते हैं। किसी ने पूर्वजन्म में मिथ्यात्व अवस्था में नरक की आयु का बंध किया, फिर केवली - श्रुतकेवली की शरण पाकर सम्यक्त्व ग्रहण करके सोलहकारण भावना भाते हुये नरक जाकर, वहाँ से निकलकर तीर्थंकर होकर निर्वाण प्राप्त करते हैं। जो पूर्वजन्म में सोलहकारण भावना भाकर तीर्थंकरप्रकृति बांधते हैं, उनके पाँच कल्याणक होते हैं। जो विदेहक्षेत्रों में गृहस्थपना में तीर्थंकर प्रकृति बांधते हैं, वे उसी भव में तप, ज्ञान, निर्वाण इन तीन कल्याणकों की इन्द्रादि द्वारा पूजन पाकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। कोई विदेहक्षेत्रों मुनिराज के व्रत धारण करने के बाद केवली - श्रुतकेवली के निकट सोलहकारण भावना भाकर उसी भव में तीर्थंकर होकर ज्ञान, निर्वाण दो 6422
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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