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________________ लाभ उठाना चाहा, किन्तु दुर्भाग्य से उसके पास पाँच रुपये की व्यवस्था न थी। उस बेचारे के पास सारा जोड़-तोड़ ढाई रुपये का ही था, अतः उसने वैतरणी पार कराने वाले उस गौ मालिक पुरोहित से नम्रतापूर्वक ढाई रुपये भेंट देकर उस वैतरणी पार होने के इच्छुकों की पंक्ति में लग जाने की प्रार्थना की, परन्तु उस पुरोहित ने इतना भाव गिरा देना उचित न समझा, क्योंकि अन्य लोग 5-5 रुपये दे रहे थे, तब आधे मूल्य पर वह नये ग्राहक को वैतरणी पार करने का प्रमाणपत्र क्यों देता ? अतः धर्माधिकारी ने उस भोले ग्रामीण गरीब भक्त को झिड़क दिया कि ढाई रुपये में वैतरणी पार नहीं हो सकती। वैतरणी पार होने का यह दृश्य लोगों की अन्धश्रद्धा का इस युग में जीता-जागता उदाहरण मिलता है। धर्मसाधना की ऐसी अन्धश्रद्धा में अपने घरवालों के दुराग्रह के कारण अच्छे शिक्षित पढ़े-लिखे बुद्धिमान लोगों को भी कभी-कभी बुरी तरह फँस जाना पड़ता है। उस अन्धश्रद्धा के मूर्खतापूर्ण धर्माचरण में फँस कर ऐसे शिक्षित समर्थ समझदार लोगों को आत्मग्लानि होती है, उनका मन उस जाल से निकलना चाहता है, परन्तु रूढ़ि के दास उनके घरवाले दुराग्रह से उन्हें नहीं निकलने देते। बहुत वर्ष पहले कलकत्ता से एक 'मतवाला' नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित होता था। उसके समाचार, सम्पादकीय लेख, कहानी, लेख यहाँ तक कि विज्ञापन भी हास्यरस में ही प्रकाशित हुआ करते थे। वह राष्ट्रीय तथा हिन्दूधर्म का समर्थक तथा पोषक था, किन्तु पाखण्ड का खण्डन करने में न चूकता था। उसमें एक समाचार लगभग सन् 1924 या 1925 में के किसी अंक में प्रकाशित हुआ था कि संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) का एक छोटा देशी राजा, जो कि हिन्दू विश्वविद्यालय का ग्रेजुएट (बी.ए.) था, अपनी वृद्ध माता तथा नवविवाहिता नवयुवती पत्नी के साथ बनारस में तीर्थयात्रा करने आया । उसके कुल क्रम का निश्चित पण्डा उस राजपरिवार को गंगास्नान कराने तथा विविध मन्दिरों के दर्शन कराने के लिये उसके 623
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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