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________________ मेरा कर्म है। मुझे न किसी की निन्दा करनी है, न किसी से बैर लेना है। मुझे तो फिटकरी की भाँति बनना है और सम्यक्त्व रूपी जल में उठते हुये कचरे को दबाना है । कदाचित् कोई बाल या अशक्त जीव सम्यक्चारित्र को छोड़कर शिथिल क्रिया करे, तो भी उसके दोषों को दबा देना ही उपगूहन है । जैसे एक माँ अपनी पुत्री के अनेक दोषों को देखकर भी उसे अपनी पुत्री समझकर उसके दोषों को छिपा लेती है । एकान्त में ताड़ना आदि देकर उसे उसके दुष्कृत्य को छोड़ने की प्रेरणा देती है; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पहले दोष को देखकर जिनमार्ग में अपनत्व की बुद्धि रखते हुये दोष को छुपाता है तथा एकान्त में दोषी को विनय, भय या ताड़ना आदि देकर मार्ग मलिन न हो, इस प्रकार का कार्य करता है । उपगूहन अंग के सम्बन्ध में "कार्तिकेयानुप्रेक्षा" ग्रन्थ में एक गाथा आती है जो परदोसं गोवदि णियसुकयं जेणपयडदे लोए । भवियव्व-भावणरओ उवगूहण - कारओ सो हु ।। 4119 ।। जो सम्यग्दृष्टि दूसरे के दोष को ढाँकता है और अपने सुकृत को लोक में प्रकाशित नहीं करता है, भवितव्यता की भावना में रत रहता है, उसके उपगूहन अंग होता है। वर्तमान में हमारा अधिकतम समय दूसरों की निन्दा व अपनी प्रशंसा करते हुए बीत रहा है। आज हमारी कुबुद्धि में दूसरों के सरसों बराबर दोष पहाड़ व अपने पहाड़वत् दोष सरसों के समान प्रतिभासित होते हैं। हम दूसरों के दोषों का व अपने गुणों का ढिंडोरा पीटते हैं तो यह प्रवृति अत्यन्त घातक व सम्यक्त्व की समाप्ति का कारण है I यह बात अनुभवसिद्ध है कि अज्ञानी असमर्थ व्यक्ति या परिस्थिति में फँसे हुए व्यक्ति में यदि कोई दोष है, अगर उसे प्रगट कर दिया जाता है तो व्यक्ति में सुधार की अपेक्षा बिगाड़ की सम्भावना अधिक हो जाती है; 543 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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