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________________ जिनधर्म की वृद्धि हो सके। धर्म की हानि बाल और अशक्त जनों से ही होती है। बाल का अर्थ है- क्रिया के विवेक से रहित व्यक्ति और अशक्त का अर्थ है क्रिया को सही ढंग से न करने में प्रवृत्त अशक्त व्यक्ति । इनका बाल व वृद्ध उम्र से सम्बन्ध नहीं, अपितु कृत्य से सम्बन्ध है। ऐसा समझना चाहिए। संसार में अनेक जीव हैं। सभी की शारीरिक सामर्थ्य भिन्न-भिन्न है, अतः जिनधर्मावलम्बियों के क्रिया-कलापों को देखकर उनके मोहनीय कर्म का उदय अथवा अनुत्साह, दुर्बलता, परिस्थियाँ धर्म के प्रति अरुचि समझकर, उसकी हानि कर, चेष्टाओं को देखते हुए भी अनदेखा कर देना चाहिए। यही वास्तविक उपगूहन है; क्योंकि संसार में प्रत्येक जीव का कर्म भिन्न-भिन्न है। व्यक्ति के कौन-से कर्म का उदय आ जाये और वह कर्मोदय में कौन-सा कृत्य कर बैठे, कहा नहीं जा सकता। अन्तरंग परिणाम और बहिरंग कृत्य सदा एक-से नहीं रहते हैं। द्रव्य, क्षेत्र,काल के अनसार सतत जीवों के भावों में, परिणामों में परिवर्तन आ रहा है। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं धर्म की निन्दा से बचता है और बाल व अशक्त जीवों द्वारा धर्म की होती हुई निन्दा-हानि को बचाने का प्रयास करता है। वह स्वयं दोषों से रहित होता हुआ अन्य को भी दोषों से रहित करने का प्रयास करता है। जो सम्यग्दृष्टि जीव पर के दोषों को छिपाता है, दूर करता है, दोषों को गुप्त रखकर धर्म की निन्दा होने से बचाता है। वह स्वयं के सम्यक्-दर्शन को निर्मल करता है। वह जानता है कि संसार का प्रत्येक मनुष्य क्रोध, मान, माया, लोभ से भरा हुआ है। उसके गलत कदम जल्दी पड़ जाते हैं। मन उसी प्रकार विषयों को देखकर फिसल जाता है, जैसे केले के छिलके पर पैर पड़ने पर आदमी फिसल जाता है। मन गिद्ध की भाँति विषयों को ही पकड़ता है, क्योंकि अनादि सम्बन्ध है। इसलिये अच्छाई सीखनी पड़ती है, बुराई छोड़नी पड़ती है। बुराई को छोड़ना-छुड़वाना 20 542_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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