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________________ क्योंकि दोषी व्यक्ति में अहंकार उत्पन्न हो जाता है। अतः दोष के न प्रगट करने में ही भला है। सम्यग्दृष्टि तो चाहता है कि किसी भी माध्यम से धर्म का लोप न हो, धर्ममार्ग में धब्बा न लगे। वह येन-केन-प्रकारेण दूषित हृदय युक्त मिथ्यादृष्टियों से धर्म को बचाता है और सद्मार्ग में चलने वाले जीवों के दोषों को गुप्त रखता है। जिनमार्ग तो शुद्ध है, निन्दा योग्य नहीं है, फिर भी मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के द्वारा अज्ञान या प्रमाद से शारीरिक, मानसिक, वाचिक कोई दोष उत्पन्न हो जावे या दुराग्रही द्वारा द्वेषवश लगाये गये दोषों के कारण जिनेन्द्रोक्त पवित्र धर्म की निन्दा उत्पन्न हो जाये, तो सम्यग्दृष्टि को सामर्थ्यानुसार उसे दूर करना चाहिए और जिनमार्ग की रक्षा करनी चाहिए। यदि सम्यग्दृष्टि ऐसा नहीं करेंगे, तो अन्य जीव जिनधर्म से विमुख हो जायेंगे और धर्म का मार्ग लोप हो जायेगा। इसलिए सम्यग्दृष्टि धर्मवृद्धि हेतु प्रसंगानुसार ही कार्य करता है। जहाँ दोष को ढाँकने की बात होती है, वहाँ दोषों को ढाँक देता है। ढाँकना और बढ़ाना विवेकपूर्ण कार्य है। अगर किसी में गुण अधिक और दोष एकाध नजर आये, ऐसे व्यक्ति से विशेष प्रभावना होती हो, तो सावधान चित्त से दोषों को न देखकर प्रभावी व्यक्ति के गुणों की ओर दृष्टि रखकर अपना कार्य करना चाहिए अन्यथा धर्म की भारी निन्दा होने की सम्भावना रहती है। उपगूहन अंग आत्मा की सुरक्षा का कवच है। उप का अर्थ है 'पास' | गूहन का अर्थ है- दबा देना, छिपा देना, पीठ कर लेना, मुख फेर लेना, ध्यान नहीं देना। अर्थात् किसी के किसी की कमी दिखे तो उसकी आत्मा तक मत पहुँचना, उस पर पर्दा डाल देना। दृष्टि को वहाँ से हटा देना; क्योंकि गलत वस्तुओं को देखकर मन भी गलत हो जायेगा। यह मन कैमरे की भाँति है। कैमरे को जिस पदार्थ के सामने रखोगे और बटन दबाओगे, वही तस्वीर देखेगी, वैसी सूचना मन तक पहुँच जायेगी, मन विचलित होगा, तनाव से भरेगा, तुम स्वयं परेशान हो 544
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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