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________________ हेय-उपादेय और हित-अहित का निर्णय कर ही उसे अपनाता है। वह अंधश्रद्धालु नहीं होता। परमार्थभूत देव, शास्त्र और गुरु को वह पूर्ण बहुमान देता है। इनके अतिरिक्त अन्य कुमार्गगामियों के वैभव को देखकर प्रभावित नहीं होता, न ही उनकी निन्दा या प्रशंसा करता है, अपितु उनके प्रति माध्यस्थ भाव रखता है। मिथ्यामार्गी के अनायतन का किसी भी रूप में सम्मानादि नहीं करना चाहिये। मन-वचन-काय तीनों से छ: अनायतनों से बचे रहना चाहिए और इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए- 'कापथस्थेऽप्य-सम्मतिः' कुमार्ग में स्थित मिथ्यादर्शनादि के आधारभूत किसी जीव का समर्थन नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो धर्म के विरुद्ध है, उनका समर्थन करने से अधर्म का विस्तार होता है। कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु एवं कुदेव सेवक, कुशास्त्र सेवक, कुगुरु सेवक की मान्यता करना तो दुःखों को निमंत्रण देना है, क्योंकि ये कुपथ में स्थित हैं। ये अनायतन हैं। ये बाहर से चमत्कारपूर्ण नजर आते हैं, पर भीतर से शून्य होते हैं। स्वयं दुःख पाते हैं और दूसरों को भी दुःख के मार्ग पर ढकेल देते हैं। सम्यग्दृष्टि कभी भी कुदेवादि को नमस्कार आदि नहीं करता। यह सम्यग्दर्शन का चौथा अंग है- अमूढदृष्टि। एक ऐसी दृष्टि, जिसके प्रकट होते ही मन का सारा भय मिट जाता है। मन की शंकायें निःशेष हो जाती हैं। समस्त आकांक्षायें समाप्त होने लगती हैं। सम्यक्त्व के होने पर मूढ़ता कैसे रहेगी? जिसकी दृष्टि में समीचीनता आ गई, जिसकी दृष्टि सम्यक हो गई, यथार्थतः ज्ञानी तो वही है। मूढ़ तो अज्ञानी को कहते हैं। मूढ वह है, जो मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति करे। सम्यग्दृष्टि यथार्थमूलक जीवन जीता है, अतः उसके जीवन में मूढ़ता नहीं रहती। अमूढदृष्टि अंग का लक्षण बताते हुये कुंदकुंद आचार्य कहते हैं 10 519
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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